किसी भी देश और समाज
की कुछ संरचनाये और उन पर आधारित कुछ व्यवस्थाये होती है जिनके सहारे व्यक्ति के जीवन की
आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित होती है . परिवार, जाति, धर्म संविधान, कानून
इत्यादि इन के उदाहरण हैं. ये संरचनाये/व्यवस्थाये जब तक व्यक्ति की आवश्यकताओ की
पूर्ति कर रही होती है तभी तक जीवित रहती है जिस दिन उन्होने ऐसा करना छोड दिया
उसी दिन गैर प्रासंगिलक और मृत हो जाती है. यदि कोई समाज या देश ऐसी गैरप्रासंगिक
और प्रेत व्यवस्थाओ के सहारे चलने की कोशिश करता है तो वह भी उसी प्रेतगति को
प्राप्त होने लगता है.
मेरे लिये सेकुलरिज्म
और कम्युनलिज्म दो शब्दो से ज्यादा कुछ नही है. इनकी सुविधानुसार व्याख्या ही
समस्या का मूल कारण है. इज्म(वाद) ही सारे विवादो का जन्मदाता है. व्यवस्था मे
अनरेस्ट पैदा करने वाला है. असत्य प्रयोग के दौरान सेकुलरिज्म भी उतना ही खतरनाक
है जितना कि कम्युनलिज्म. जिस भी तथ्य या शब्द को प्रतिष्ठित किया जायेगा वही
दूसरे की हीनता मे किसी न किसी तरह का योगदान देने वाला बन जाता है. हर शब्द
व्यवस्था वस्तु की अपनी खूबियां होती है उन खूबियों के उपयोग से हम मानवता को सुखी
एवम समृद्ध बना सकते है.
चाहे धर्म हो या
अन्य कोई सामाजिक संरचना, बजाय कि संरचनागत होने के यदि प्रतिष्ठा के वितरण पर
ध्यान केन्द्रित किया जाय और असमान प्रतिष्ठा वितरण पर और उससे होने वाले लाभों पर
रोक लगाने की कोशिश की जाय तो वह ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि समाज को चलाने के
लिये कोई न कोई संरचना तो चाहिये ही.अब चाहे वह व्यवस्था जाति/धर्म हो या
वर्ग/पंथनिर्पेक्षता. यहा मै गान्धी जी को उद्धरित करना चाहुंगा कि एक वकील और एक
नाई के कार्यों की प्रतिष्ठा मे अंतर नही होना चाहिये क्योंकि दोनो की बराबर
आवश्यकता समाज को है दोनो के बिना व्यवस्था चलाना कठिन होगा. अत: प्रतिष्ठा का
मुद्दा मुख्य है बजाय कि साम्रदायिकता या धर्मनिर्पेक्षता.
सवाल इस बात का है
कि कोई कैसे किसी जाति,धर्म,समुदाय,वर्ग या लिंग का होने मात्र से प्रतिष्ठित हो
जाता है, ऊंचा नीचा हो जाता है? जहां तक मेरा मानना है कि प्रतिष्ठा का एक मात्र
आधार होना चाहिये और वह है “परहित”. सेकुलर/कम्युनल के चक्कर मे “परहित छूट जाता
है. मेरे लिये मेरे धार्मिक होने मे यही परहित निहित है. परहित सरिस धरम नही भाई.
क्योंकि इसी परहित के सहारे हम सामूहिक जीवन को सुनिश्चित कर सकते है और यही बात
इस धरती पर मानव जीवन की उत्तरजीविता की गारंटी है.
अति उत्तम विचार...मेरा भी मानना है देश का हर नागरिक बराबर है, इसलिए उसे बराबरी के नज़रिए से ही देखा जाना चाहिए...मेरा सवाल है साथ ही मेरे ब्लॉग की टैगलाइन है-देश का कोई धर्म, जात या नस्ल नहीं तो फिर यहां रहने वाले किसी पहचान के दायरे में क्यों बांधे जाएं...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
मौलिक चिन्तन सदा ही अच्छा रहता है सदा के लिये, कृत्रिम उपाधियों से राजनीति का ही भला हुआ है।
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