सोमवार, 31 जनवरी 2011

एक अकथ कहानी जो शुरू हुई शोषण से

 एक अकथ कहानी जो शुरू हुई शोषण  से
 सभ्य समाज में इसे नक्सली   समस्या कहा जाता है
"दुनिया ने मुझे बाँट लिया हज्बे जरूरत
खुद अपनी जरूरत के लिए भी न बचा मै"
एक आम आदिवासी पीड़ा को उनके शब्दों में महसूस कीजिये.
"उन्होंने मुझसे अनगिनत वादे किये,
इतने कि मुझे सब याद नही है
लेकिन पूरा सिर्फ एक वादा किया .
उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरी जमीन ले लेगे
और उन्होंने ले ली."
मेरी हरी भरी पहाड़िया कहा गयी?
मेरे बचपन में चरागाहे इतनी इतनी हरी  भरी थी
 कि मेरे मवेशी व जानवर यहाँ साल भर चरते थे
 आज नज़र उठा कर देखता हूँ तो
 केवल भूरी भूरी चट्टानें ही नज़र आती है.
 मै क्या करू?
उपभोगवाद ने भस्मासुरी परिणाम दिखाने शुरू कर दिए है ये नक्सल समस्या उसी शोषण का परिणाम है जो अब अपने प्रचंड रूप से देश  और सरकार को आतंकित किये हुए है. सलवा जुडूम का गठन कोढ़ में खाज  पैदा करने वाला कदम था. इस देश में सामाजिक नीतियों का निर्माण पूजीपति करते है जो हर चीज़ में लाभ हानि का गुणा भाग करके किसी भी योजना को मूर्त रूप देते है. बात महज सामजिक नीतियों की ही नही शैक्षिक   नीति हो या सांस्कृतिक सब में ये लिप्त है. किसी सांस्कृतिक नीति निर्माण में कोई मानवशास्त्री  या समाजशास्त्री के शामिल होने की संभावना नगण्य रहती है और अगर रहती भी है तो केवल हाथी के दांत सरीखी. अब भी समय है अगर चेता न गया तो सम्पूर्ण देश के कुरुक्षेत्र बनने में समय नही लगेगा.

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

गंगा तिल-तिल कर मर रही है

गंगा का पानी अब अपने प्रदूषण के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। गंगा सफाई से जुड़े प्रो. वीर भद्र मिश्र की के अनुसार  तो  गंगा में फिकल क्वालिफार्म की संख्या वर्तमान समय में प्रति 100 सी सी पानी में 60 हजार बैक्टीरिया है और वी.ओ.डी की मात्रा चार पांच मिली ग्राम प्रति लीटर है, जबकि यह तीन से ज्यादा नहीं होना चाहिए।
 वाराणसी में आदि केशव घाट पर यही फिकल क्वालिफार्म डेढ़ लाख प्रति सौ सीसी पानी में हैं, जबकि वी.ओ.डी की मात्रा 22 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी में है। अगर एक लाइन में कहा जाय तो गंगा अब मरने के कगार पर पहुंच चुकी है। वह दिन दूर नहीं जब गंगा इतिहास के पन्नों में सरस्वती नदी की तरह कहीं खो जाएंगी।

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में गंगा प्रयोगशाला के हेड प्रो. यू.सी चौधरी ने तो यहां तक कह दिया है कि गंगा में आक्सीजन की मात्रा अब तक के निम्नतर स्तर पर है, क्योंकि टिहरी में गंगा के पानी को रोक तो दिया गया है लेकिन गंदे नालों का पानी गंगा में लगातार गिर रहा है जिससे आक्सीजन की मात्रा लगातार कम होती जा रही है। उन्होंने बेबाक लहजों में कहा की यदि अब गंगा को बचाने का ठोस प्रयास नहीं किया गया तो गंगा को कोई नहीं बचा
 सकता है।

द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का कहना है कि 'नदी बेगे न शुद्धते', अर्थात जिस नदी में धारा नहीं होगी उसकी गुणवत्ता भी समाप्त हो जाएगी। रक्षत गंगाम आन्दोलन के प्रणेता राम शंकर सिंह का कहना है कि टिहरी से गंगा को मुक्त कर दिया जाए और शहरों के गंदे नाले गिरने बंद हो जाएं तभी गंगा बच सकती है वरना इसे बचाना संभव नहीं है।

एक नज़र इधर

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में गंगा प्रदूषण रोकने के लिए एक विशाल मलशोधन संयंत्र लगाने, घाटों के नवीकरण और अन्य उपायों के संबंध में 497 करोड़ रुपये की एक महत्वाकांक्षी योजना को आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमिटी ने मंजूरी दी।
अब इन रूपयों की गंगा सरकारी बाबुओ हाकिमो नेताओ के घर में बहेगी और वह से और प्रदूषित होकर फिर भागीरथी में मिल जायेगी.
भारत की जीवन रेखा कही जाने वाली गंगा तिल-तिल कर मर रही है लेकिन उसके तथाकथित पुत्र उसे चुप-चाप मरते हुए देख रहे हैं और गंगा कि दुर्दशा ऐसी तब है जब गंगा एक्शन प्लान का दूसरा चरण चल रहा है। कहना न होगा कि गंगा सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये अब तक बहाए जा चुके हैं लेकिन वही हालत है कि 'ज्यों-ज्यों दावा की त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया'। गंगा सफाई के सरकारी प्रयास के अलावा कम से कम तीन दर्जन एनजीओ वाराणसी में ऐसे हैं, जो दसों साल से गंगा प्रदूषण का राग अलाप रहे हैं लेकिन गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए प्रयास नहीं किए।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा

हरी धरती के चाहने वाले हरिद्वार के रहने वाले हरीश जी के जज्बात से रूबरू होइए. इनके सवालात सार्वभौमिक है पर्यावरण का बचना इनके सवालो के जवाबो में है 

 दोस्तो अपने चारों ओर नज़र करता हूँ तो पाता हूँ की कंकरीटी सभ्यता का विस्तार निगल लेने को आतुर हैं हमे दिन-ब- दिन, विकास की बहुत बड़ी कीमत हैं ये, ओर इसके लिए मैं खुद को ज़िम्मेदार मानता हूँ शायद आप भी मुझसे सहमत हों




हे मनुज कुछ सोच तो तू क्या धरा को दे रहा
प्रकृति मैं विष घोल कर तू प्राण वायु ले रहा!!

नग्न से दिखते ये जंगल, माफ़ तो क्योंकर करेंगे
वो जो उजड़े हैं जड़ों से, घौसले कैसे बसेंगे,
कर औरोको मझधार मैं, अपनी ही कश्ती खे रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा!!

जंगलों को काट कर जो, बस्तियाँ तूने बसाई
वैभवका हर समान था, घरमैं मगर खुशियाँ नआई
तेरे ही तो पाप हैं पगले, तू जिनको धो रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा

इन धधकती चीमनियों के, दंश से कैसे बचोगे
बच भी गये गर मौत से पर, पीडियों विकृत रहोगे!!
दोष किसको देगा जब, खुद ही तू काँटे बो रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा!!

अब ना चेते तो धरा की, परतों मैं खोदे जाओगे
डायनासोरों की तरह, क़िस्सों मैं पाए जाओगे!!
यम तेरे सर पर खड़ा, तू हैं की ताने सो रहा
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा!!

वक्त हैं अबभी संभल, मततोड़ प्रकृति संतुलन को
जो भी जैसा हैं वही, रहने दे इस पर्यावरण को
वरना फिर भगवान भी, तुझको बचाने से रहा!!
हे मनुज कुछ सोच तो तू, क्या धरा को दे रहा
प्रकृति मैं विष घोल कर तू प्राण वायु ले रहा!!

रविवार, 23 जनवरी 2011

कागजो से शौच बनाम पर्यावरण चेतना फैलाने हेतु दौड़ या रैली का आयोजन

आजकल पर्यावरण चेतना फैलाने हेतु दौड़  या रैली निकालने का बड़ा चलन है. सवाल यह है कि इस दौड़ में भाग कौन लेता है? इसमें बड़े बड़े पूजीपति उद्योगपति अभिजात्य तबके के लोग जोर शोर से भाग लेते है. ये लोग खुद तो दौड़ कर क्या दिखाना चाहते है. हरी धरती के सबसे बड़े शत्रु यही लोग है. शौच के लिए पानी नहीं उत्तम कोटि के कागजो  का प्रयोग करते  है फिर पेड़ो को बचाने के लिए रैली का आयोजन करेगे.
दुनिया में मात्र ७ % अभिजात्य देशो से ५० % कार्बन का उत्सर्जन होता है. सच यह है कि सुविधाभोगी वर्ग प्रजातंत्र के सहारे सामान्यजन को अपराधबोध से ग्रस्त करता है. और इस शोर शराबे में मूल प्रश्न दबे रह जाते है.
पर्यावरणीय समस्या की गहन पड़ताल अंततः स्थापित तत्कालीन व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है. यह स्वाभाविक है कि ऐसा कोई भी प्रयास स्थापित शक्तिकेंद्रो(सरकारे) के हितो के  अनुकूल नहीं हो सकता. ऐसी स्थिति में ये शक्तिकेंद्र या तो पड़ताल की दिशा मोड़ने का  कार्य करते है या दमन का सहारा लेते है. वर्तमान पर्यावरणीय विमर्श में ये दोनों स्थितिया देखी जा सकती है. 
हरी धरती शौच हेतु या जहा कपडे का या जल के  प्रयोग  प्रयोग से काम होता है वहा इस प्रकार के कागजो के प्रयोग न  करने का आवाहन करती है. क्योकि इन कागजो को बनाने में जितना पानी खर्च होता है जितने पेड़ काटे जाते है उसका दसवा हिस्सा पानी भी इन कारो में खर्च नहीं होता है.

रविवार, 9 जनवरी 2011

धारा गंगा की

पटना की रहने वाली संवेदनशील   लेखिका आलोकिता ने  हरी धरती की पहरेदार की भूमिका निभाते हुए  जनचेतना के क्रम में गंगा की यात्रा और मलिनता पर ध्यान आक्रोष्ट करने का प्रयास किया है
 
मैं हूँ बहती निर्मल धारा गंगा की 
 यात्रा करती हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक की 
                    हुआ था हिमालय के गोमुख में 
                     पावन निर्मल जन्म मेरा 
                     बीता था हरिद्वार तक में 
                     चंचल विह्वल बचपन मेरा
फिर मैं आगे बढती हीं गयी 
कठिनाई बाधाओं को तोड़ती गयी  
                      पथरीले इलाके को छोड़कर 
                      आई मैं समतल जमीन पर 
                      फिर क्या था बरस पड़ा मुझपर 
                      मनुष्यों का भारी कहर 
उद्योगों के कचडे, मल, मूत्र इन सभी को 
मुझमे समाहित कर डाला 
मुझको तथा मेरी जवानी को 
इन्होने मलिन कर डाला 
                      मैं सहनशीलता की मूरत बन 
                      बस आगे बढती हीं गयी 
                      फिर दया की पात्र बन 
                      बंगाल कि खाड़ी में शरण ली 
मैं बन गयी बेबश मलीन धारा गंगा की
यात्रा पूरी हुई हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक की

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

दैवी शक्तिया और भ्रष्टाचार में क्या सम्बन्ध है

कानपुर में भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए प्रखर जी महाराज के निदेशन में एक भव्य यज्ञ  का आयोजन किया जा रहा है . स्वामीजी के भक्तो का मानना है कि इससे भ्रष्ट लोगो को सदबुधी आयेगी और समाज भ्रष्टता से मुक्त हो जाएगा . स्वामी जी का मानना है कि विश्व दैवी शक्तियों से संचालित है और दैवी शक्तिया यज्ञ  से प्रभावित होती है इसलिए यज्ञ के माध्यम से दैवी शक्तिया भ्रष्टाचार को नियंत्रित करेगे.
इस यज्ञ में अनुमानतः १०००००० भक्तजन  भाग ले रहे है जिनमे बड़े बड़े उद्योपति नौकरशाह नेता अभिनेता एंड कंपनी शामिल है
पाठक गण जरा विचार  करे
 दैवी शक्तिया और भ्रष्टाचार  में क्या सम्बन्ध है
ये पोंगा पंडित १०००००० लोगो को गंगा  के किनारे इकठ्ठा करके वह और भी प्रदूषण फैलाने का काम नहीं कर रहे है क्या ?
यज्ञ से अगर भ्रष्टाचार रुकता तो सी. बी. आई. जैसी संस्थाओं को ख़तम कर देना चाहिए
इस यज्ञ के आयोजन में जितना खर्च आएगा उतने पैसे अगर पेड़ लगाने और उनके संरक्षण में लगाया जय तो भ्रष्टाचार तो नहीं प्रदूषण रुक सकता है
ये नेता अभिनेता उद्योगपति नौकरशाह भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्रोत है आम जनता नहीं इन्ही के पैसो से यह यज्ञ  होता हो
सरल शब्दों में काले धन को सफ़ेद बनाने का तरीका है  किसी पोंगा पंडित को दान करना और (एक रूपया दान करो सौ रूपये की रसीद लो ) यज्ञ  करवाओ.
अब जरा आप ही बताये ऐसे कार्यक्रम कितने सार्थक है
एक बात मै स्पष्ट करदू कि मै यज्ञ विरोधी नही बल्कि नीयत साफ़ रखने का हिमायती हूँ .
भ्रष्टाचार  रोकने हेतु यज्ञ  की नहीं  वरन कुरीतियों, दिखावा, शोषण, असमान वितरण को रोकना होगा .
क्या ख़याल है?

इस चोरी में आपकी कितनी सहभागिता है?

धरती व्यक्ति की आवश्यकताओ की पूर्ति कर सकती है, लालच की नहीं. 
                                                                                        महात्मा गांधी
 पर्यावरण के क्षरण का मूलभूत कारण यही लालच है.
हम जितना अपनी आवश्यकता से बाहर का उपभोग करते है कही न कही वह दूसरे का हिस्सा होता है. एक तरह से यह चोरी है. आप बताइए इस चोरी में आपकी कितनी सहभागिता है?
विचार करे.......

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

धरती की उत्तरजीविता में आपकी सहभागिता

पर्यावरण पर काफी कुछ लिखा जा रहा है पढ़ा जा रहा है एक तरह से पर्यावरण की बात करना फैशन या स्टेटस सिम्बल भी बन गया है. पर्यावरण बचाने के नाम पर सरकारी गैर सरकारी संस्थाए पैसा  और पुरस्कार बटोरने में लगी है किन्तु हमारा वातावरण अपनी बदहाली पर लगातार जार जार हुआ जा रहा है. मेरा मानना है की यदि हम अनावश्यक शोबाज़ी करना छोड़ दे तो प्रदूषण की आड़ समस्या ख़त्म हो जायेगी. 
लक्जरी दिखने और दिखाने के चक्कर में ही पर्यावरण की ऐसी तैसी हो गयी है. 
मेरी अपील सभी लक्जरिअस लोगो से है कि अपनी करतूतों पर पुनः विचार करे. पूंजी के मद में प्रकृति से खेलना बंद करे नहीं तो जब प्रकृति खेलती है तब..... तब सुनामी आती है.
एक और ट्रेंड चल निकला है कि पर्यावरण प्रदूषण की जिम्मेदारी अपने से कमजोर लोगो पर डालने की. विकसित देश विकासशील देशो पर इसकी जिम्मेदारी डालते है तथाकथित सभ्य लोग गवारो पर, पूजीवादी गरीबो पर प्रदूषण  फैलाने का आरोप मढ़ कर अपने कर्तब्य की इतिश्री कर लेते है.
 अब सवाल है कि वसुंधरा की हरीतमा कैसे बचे
  हम क्या कर सकते है..........?
मै ब्लोगर साथियो से आवाहन करता हूँ कि वे अपने विचारो से मुझे अवगत कराये ताकि उनके विचारों की नीव पर धरती की हरियाली महफूज़ रखी जाये.
पर्यावरण विषय पर आपके जो भी विचार आंकड़े  उपलब्ध हो यहाँ प्रेषित करने की कृपा करे ताकि धरती की उत्तरजीविता में आपकी सहभागिता सुनिश्चित हो सके. पता है haridharti@gmail.com .
यह एक सामूहिक प्रयास है बिना आपके सहभागी हुए  अंजाम तक पहुचने में संदेह है अतः खुले दिल से माँ भूमि के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाए.  



रविवार, 2 जनवरी 2011

हरी धरती एक अभियान है जिसकी दिशा 'संरक्षणात्मक विकास' की ओर है



नए साल पर 'हरी धरती' का गठन उस आन्दोलन के अंकुर फूटने सरीखा है जिसकी दिशा 'संरक्षणात्मक विकास' की ओर है. वस्तुतः आधुनिकता की वर्जनाओं को तोडती हुई उत्तर आधुनिकता(post modernity) मात्र अंधेरी सुरंग के सिवा कुछ और न साबित हुई, जबकि उम्मीद थी कि औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण के के दुष्प्रभावों को उत्तर आधुनिकता में ढूढ़ लिया जायेगा. यह मात्र प्रतिक्रियात्मक बन कर रह गया. नतीजा यह हुआ कि आधुनिकता के बजबजाते सीवर सभ्यता रूपी गंगा को काला करने लगे.   हरी धरती एक अभियान  है जो पागलखाने और खुली जेल में तब्दील हो चुके समाज को पुनर्गठित करने हेतु संकल्पबद्ध है.  इस क्रम में बिगड़ी आब ओ हवा को ठीक करना प्राथमिकता है. कोई आन्दोलन तब सफल होता है जब उसकी वैचारिक जड़े मजबूत होती है. इसके लिए सभी ब्लोगर बांधवों से हार्दिक अपील करता हूँ कि वो हरी धरती से जुड़े और अपने बहुमूल्य विचारों से सामाजिक और पारिस्थितिकीय तंत्र को सुधरने में सहयोग करे.
यदि आपके पास पर्यावरण , सामाजिक विषमता , तकनीक से सम्बंधित कोई भी आंकडा , रचना , शोध पत्र क्षेत्र कार्य इत्यादि हो तो उसे  haridharti@gmail.com पर भेजने का कष्ट करें । आपके नाम परिचय चित्र को प्रकाशित किया जायेगा
हमारा लक्ष्य जल, जंगल, जमीन और जानवरों के संरक्षण में निहित है. 
चलते चलते एक बात और स्पष्ट कर दू कि महज टिप्पणी या चर्चा पाना इस ब्लॉग का उद्देश्य नहीं है. 
जैसा कि दुष्यंत कुमार कहते है

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.