यदि आप अपनी आवश्यकता से अधिक प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करते है तो आप जाने
अनजाने में ऐसा पाप करते है जिसका प्रायश्चित्त संभव नही है. आपका मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे या चर्च जाना चोरी सीना जोरी वाली बात होगी. आप यह तर्क देगे कि मै अपनी मर्जी और पैसे के मुताबिक़ कुछ भी उपभोग करने के लिए स्वतंत्र हूँ तो यह निहायत नीच एवं बेहूदा तर्क है. तह एक किसिम की डकैती है. डकैतों के पास लोगो को लूटने का सामर्थ्य है तो क्या उनका कृत्य जायज है? नही न, तो आपका कृत्य जायज़ कैसे हो सकता है.
1960 से 2006 तक के आकडे प्रदर्शित करते है कि जनगणना वृद्धि के अनुपात में प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग वैश्विक स्तर पर तीन गुना हुआ है धातुओ का उत्पादन छह गुना, खनिज तेल आठ गुना तथा प्राकृतिक गैस चौदह गुना हो गयी है. एक औसत यूरोपीय 43 किलोग्राम प्राकृतिक संसाधन प्रतिदिन उपभोग करता है जबकि एक औसत अमेरिकी 88 किलोग्राम उपभोग करता है.
मानव द्वारा उपभोग की मात्र इतनी अधिक है कि उसे पूरा करने के लिए एक तिहाई प्रथ्वी की और अधिक आवश्यकता है.विश्व के सात प्रतिशत लोग पचास प्रतिशत का उत्सर्जन करते है जबकि पांच प्रतिशत विश्व की आबादी कुल प्राकृतिक संसाधनों के खपत का बत्तीस प्रतिशत व्यय करती है.
उपभोग में इतनी ज्यादा विषमता है कि धनी देशो के 20 प्रतिशत नागरिक ...
1) कुल उत्पादन का 45 मछली मांस का खा जाते है
2) कुल ऊर्जा 58 प्रतिशत इस्तेमाल करते है.
3)कुल संचार के साधनों का 74 प्रतिशत प्रयोग करते है
4) कुल कागजों का 84 प्रतिशत प्रयोग करते है.
5) कुल वाहनों का 87 प्रतिशत इस्तेमाल करते है.
उपभोग की अत्यधिक विषमताओ से हम धरती को निर्जीविता की और धकेल रहे है. अभी भी समय है चेतने का यदि इस कगार पर आकर हम नही चेते तो प्रकृति हमें दुबारा मौका नही देगी.