मैं हूँ बहती निर्मल धारा गंगा की
यात्रा करती हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक की
हुआ था हिमालय के गोमुख में
पावन निर्मल जन्म मेरा
बीता था हरिद्वार तक में
चंचल विह्वल बचपन मेरा
फिर मैं आगे बढती हीं गयी
कठिनाई बाधाओं को तोड़ती गयी
पथरीले इलाके को छोड़कर
आई मैं समतल जमीन पर
फिर क्या था बरस पड़ा मुझपर
मनुष्यों का भारी कहर
उद्योगों के कचडे, मल, मूत्र इन सभी को
मुझमे समाहित कर डाला
मुझको तथा मेरी जवानी को
इन्होने मलिन कर डाला
मैं सहनशीलता की मूरत बन
बस आगे बढती हीं गयी
फिर दया की पात्र बन
बंगाल कि खाड़ी में शरण ली
मैं बन गयी बेबश मलीन धारा गंगा की
यात्रा पूरी हुई हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक की
आलोकिता के एक एक शब्द गंगा की पोईदा क़ा बयान कर रहे है
जवाब देंहटाएंगंगा को पीड़ा से मुक्त कराये
पथरीले इलाके को छोड़कर
जवाब देंहटाएंआई मैं समतल जमीन पर
फिर क्या था बरस पड़ा मुझपर
मनुष्यों का भारी कहर
उद्योगों के कचडे, मल, मूत्र इन सभी को
मुझमे समाहित कर डाला
मुझको तथा मेरी जवानी को
इन्होने मलिन कर डाला
मैं सहनशीलता की मूरत बन
बस आगे बढती हीं गयी
फिर दया की पात्र बन
बंगाल कि खाड़ी में शरण ली
मैं बन गयी बेबश मलीन धारा गंगा की
यात्रा पूरी हुई हिमालय से बंगाल कि खाड़ी तक की
bahut sundar
sach ko likhaa aapne
likhati jaaye
बहुत सुन्दर! बेहतरीन रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई..
जवाब देंहटाएंइस बेहतरीन सुन्दर रचना के लिये आलोकिता को बधाई।
जवाब देंहटाएंसराहनीय एवं प्रोत्साहन की हकदार कविता.
जवाब देंहटाएंVery nice poem, can I use it? (not sure where I will use it, but if any occasion/situation arrives it will be very good)
जवाब देंहटाएंरविन्द्रनाथ जी आप इस कविता का प्रयोग वाणिज्यिक तरीके से नहीं कर सकते अगर यूँही कहीं इसका उपयोग किया भी तो रचयिता का नाम "आलोकिता" साथ में होना आवश्यक है |
जवाब देंहटाएंThanks alokita, will take care of it.
जवाब देंहटाएंBeti tumhari kavita bahut pasand aaya aage aese hi likhte rahna.
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