हमारे गाँव में गोलारे मिसिर और दुधई मिसिर दो भाई थे। दोनों के पास गाँव की चार आना जमीन थी । गोलारे के दो पुत्र हुए लाले और लुल्ली। दूधई के खानदान में पुट्टू पुकनू पलटू और कलई हुये। इन लोगों के पास कुल मिलाकर सवा सौ बीघे जमीन होगी । गोलारे और दुधई के मरते ही गाँव के लंबरदारों ने उनके बच्चों को समझाया।इतनी सारी जमीनों का कुछ करो नहीं तो चकबंदी के चक्कर में जमीन सरकार ले लेगी या भूदान आन्दोलन के चलते तुम्हारी जमीनें हरिजनों को दे दी जायेंगी। पुट्टू की अगुवाई में जमीन का सबसे सही उपयोग उसे बेंचना समझा गया सो सबने जमीन बेंचना शुरू किया ।
हमारे बाबूजी कहते थे धरती माँ होती है, अपनी जमीन बेंचना माँ को बेचने जैसा है । सूखी रोटी खा लो, पानी पीकर पेट की आग बुझा लो, मुला जमीन को बेचने की बात राम राम पुरखों को का मुंह दिखाओगे?
पर पुट्टू एंड कंपनी धरती माँ को बेंचते गयी । गाँव के लम्बरदार लोग बैनामा करा करा बरफी चांपते गये । एक दिन ऐसा आया कि जमीन के नाम पर इन लोगों के पास कच्चे घर रह गये। फिर हमने कुछ दिनों बाद देखा घर की मिट्टी का कतरा कतरा बिक गया। फिर भूखे मरते पुट्टू, पुकनू, लाले, लुल्ली, कलई और पलटू लंबरदारों के यहाँ रिक्शा चलाने और छान छप्पर छ्हाने मिट्टी काटने और मौसमी मजदूरी का काम करने लगे।
ठीक यही हाल भुल्लुर के लड़के छंगू का हुआ । मुरली के बच्चों मंगरू और सम्हरू का हुआ। पाठक खानदान का हुआ। बबऊ तेवारी का हुआ। अब हालत ये है कि ये सब इंदिरा गांधी आवास योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को दी जाने वाली गृह सुविधा के तहत बने बदबूदार कोठरियों में रह रहे हैं ।
अब ये भूमिहीन हैं । सरकार ने तो इनकी जमीने नहीं ली ।
इनकी हालत का जिम्मेदार कौन ? सरकार या ये स्वयं या बरफी खाने वाले लम्बरदार?