वर्तमान शिक्षा
व्यवस्था "विदक्षता" (Deskilling) के दुष्चक्र में फंस गयी है। शैक्षिक
प्रसार के नाम पर पूरी व्यवस्था को निजी संस्थाओं के हवाले किया जा रहा
है। ऐसे में शैक्षिक गुणवत्ता का स्थान मुनाफे ने ले लिया है। येन केन
प्रकरेण मुनाफा प्राप्त करना ही संस्थाओं का अंतिम उद्देश्य बन चुका है।
कोई भी शराब बनाने वाला, मिठाई बनाने वाला,कबाड़ व्यापारी, माफिया, नेता,
अपराधी देश हित या समाज हित को आड़ बनाकर पैसे के जोर से शिक्षाविद बन जाते
है और महज पैसा बनाने के लिए स्कूल कॉलेज
या यूनिवर्सिटी खोल लेते है।
लग्जरियस इंफ्रास्ट्रक्चर, फर्जी आंकड़े, फर्जी सूचनाओं एवं दलालो के सहारे कालाबाजारी कर "इन्टेक" पूरा करते है। इस प्रक्रिया में दूर दराज के छात्रों को बहला फुसलाकर उन्हें सुनहरे सपने दिखा कर उन्हें संस्थाओं में एजेंट को मोटी रकम देकर एडमिट किया जाता है . फिर उनकी पढ़ाई लिखाई के लिए अकुशल शिक्षक ( हालांकि कागजी आंकड़ों में ये संस्थान हाई क्वालिफाइड टीचर्स दिखाते है जो अधिकतर उस संस्थान के निरीक्षण के समय भौमिक सत्यापन हेतु मौजूद रहते है और निश्चित रकम लेते है) रखे जाते है। ये अकुशल शिक्षक या तो " फ्रेशर" होते है अल्प जानकारी रखने वाले या कम वेतन पर काम करने को "विवश" लोग। मजे की बात तो यह है कि निजी संस्थाओं में हाई डिग्री होल्डर के ऊपर हमेशा निकले जाने की तलवार लटकती रहती है क्योंकि संस्थान के मालिक को मनोवैज्ञानिक भय होता है की हाई प्रोफाइल टीचर उसके कंट्रोल में नही आएगा और अधिक वेतन की मांग करेगा। इसलिए ये लोग साक्षात्कार के दौरान ही हाई क्वालिफाइड कैंडिडेट को पहले से बाहर कर देते हैं। इस प्रकार एक अकुशलता का चक्र बनता है। अकुशल शिक्षक के अध्यापन से जो छात्र तैयार होंगे वो भी गुणवत्ता विहीन होंगे और जब ये क्षेत्र में काम करने जाएंगे चाहे वह उत्पादन हो या सेवा क्षेत्र वहा भी गुणवत्ता मानको से नीचे ही रहेगी। परिणाम यह होगा कि इनके द्वारा निर्मित उत्पाद या दी गई सेवा राष्ट्रीय/ अंतराष्ट्रीय मानको पर खरी नही उतरेगी और प्रतिद्वंदिता में कही पीछे छूट जाएगी। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पडेगा और अर्थव्यवस्था दबाव में आ जाएगी। पुनश्च बड़े पैमाने पर छंटनी की प्रक्रिया में ये अकुशल लोग भारी मात्र में निकाले जाते है जो एक्सपीरियंस के आधार पर किसी न किसी निजी शैक्षणिक संस्था में फिर पढ़ाने का कार्य करने लगते है वो भी कम वेतन पर। इस प्रक्रिया में अच्छे शिक्षको को नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। यह ठीक उसी तरह से है कि ब्लैक मनी वाइट मनी को चलन से बाहर कर देता है।
लग्जरियस इंफ्रास्ट्रक्चर, फर्जी आंकड़े, फर्जी सूचनाओं एवं दलालो के सहारे कालाबाजारी कर "इन्टेक" पूरा करते है। इस प्रक्रिया में दूर दराज के छात्रों को बहला फुसलाकर उन्हें सुनहरे सपने दिखा कर उन्हें संस्थाओं में एजेंट को मोटी रकम देकर एडमिट किया जाता है . फिर उनकी पढ़ाई लिखाई के लिए अकुशल शिक्षक ( हालांकि कागजी आंकड़ों में ये संस्थान हाई क्वालिफाइड टीचर्स दिखाते है जो अधिकतर उस संस्थान के निरीक्षण के समय भौमिक सत्यापन हेतु मौजूद रहते है और निश्चित रकम लेते है) रखे जाते है। ये अकुशल शिक्षक या तो " फ्रेशर" होते है अल्प जानकारी रखने वाले या कम वेतन पर काम करने को "विवश" लोग। मजे की बात तो यह है कि निजी संस्थाओं में हाई डिग्री होल्डर के ऊपर हमेशा निकले जाने की तलवार लटकती रहती है क्योंकि संस्थान के मालिक को मनोवैज्ञानिक भय होता है की हाई प्रोफाइल टीचर उसके कंट्रोल में नही आएगा और अधिक वेतन की मांग करेगा। इसलिए ये लोग साक्षात्कार के दौरान ही हाई क्वालिफाइड कैंडिडेट को पहले से बाहर कर देते हैं। इस प्रकार एक अकुशलता का चक्र बनता है। अकुशल शिक्षक के अध्यापन से जो छात्र तैयार होंगे वो भी गुणवत्ता विहीन होंगे और जब ये क्षेत्र में काम करने जाएंगे चाहे वह उत्पादन हो या सेवा क्षेत्र वहा भी गुणवत्ता मानको से नीचे ही रहेगी। परिणाम यह होगा कि इनके द्वारा निर्मित उत्पाद या दी गई सेवा राष्ट्रीय/ अंतराष्ट्रीय मानको पर खरी नही उतरेगी और प्रतिद्वंदिता में कही पीछे छूट जाएगी। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पडेगा और अर्थव्यवस्था दबाव में आ जाएगी। पुनश्च बड़े पैमाने पर छंटनी की प्रक्रिया में ये अकुशल लोग भारी मात्र में निकाले जाते है जो एक्सपीरियंस के आधार पर किसी न किसी निजी शैक्षणिक संस्था में फिर पढ़ाने का कार्य करने लगते है वो भी कम वेतन पर। इस प्रक्रिया में अच्छे शिक्षको को नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। यह ठीक उसी तरह से है कि ब्लैक मनी वाइट मनी को चलन से बाहर कर देता है।
फिर वही विदक्षता का दुष्चक्र .
यहाँ एक बात और गौर करने लायक है कि
इन संस्थाओं में कार्यरत शिक्षक एवं संस्था प्रमुख के बीच सामंत और दास
जैसा रिश्ता होता है शिक्षक चाहे कितना भी प्रशिक्षित और योग्य हो संस्था
प्रमुख हमेशा उसे हिकारत से देखता है कई बार उसे उसकी हैसियत याद करवाता
है। सारा का सारा खेल मुनाफे का है कुल मिलाकर चाटुकारिता भ्रष्टाचार के
सहारे पूंजीपतियों ने शिक्षा व्यवस्था को अत्यंत दूषित एवं भ्रष्ट कर दिया
है जो पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और बिगड़ी अर्थव्यवस्था का मूल कारण
है।