हर एक व्यक्ति के अन्दर एक गाँव होता
है । गाँव कोई स्थान विशेष संज्ञा न होकर एक गुणवाचक शब्द है, जिसके
अर्थ विस्तृतता में निहित हैं।.गाँव की मर्यादा क्षितिज के सरीखे होती है, जितने
उसके पास आओ उतना ही उसका विस्तार होता जाता है और इस विस्तृतता में रस है, शहद
के गंध में भीगी हवायें हैं,जल से भरे बादल हैं, ऊर्जा से भरी धूप है, उमंगयुक्त गीत
है,नेह है,सम्बंध है,संरक्षण है और जीवन है।
सारा गाँव, सारे खेत कियारी,
सारे
बाग़, सारे ताल, घर, दुआर, गोरू, बछरू, चकरोट,
कोलिया,
पुलिया,
सड़क,
सेंवार,
बबुराही,
बँसवारी,
परती,
नहरा,
नाली, बरहा, नार, मोट, लिजुरी,
बरारी,
इनारा,
खटिया,
मचिया,
लाठी,
डंडा,
उपरी,
कंडा
और बचपन जिसे छोड़कर हम शहर चले आए कि बड़ा आदमी बन जायेंगे, बड़ा आदमी बने कि नही बने ये तो नही पता
लेकिन किरायेदार जरुर बन गये । शहर के
किरायेदार । रहने खाने का किराया, पानी का किराया, टट्टी-पेशाब का
किराया, सडक पर चलने का किराया, किराए के कपड़े, किराए के ओहदे,
किराए
के रिश्ते, किराये का हँसना, रोना, गाना,
बजाना और
किराये की जिन्दगी।
किरायेदारी के अनुबंध की शर्ते
हमेशा मालिक और गुलाम का निर्माण करती
हैं। चाहे रूप और नाम कुछ भी हों पर प्रकृति घोर सामंती ही है। गाँव से निकली गंगा शहरी सीवर में कब
बदल जाती है और सीवर पर किराया कब लग जाता है इस पर शोध करने लायक मेरे पास किराया
नही है। फिर भी जिन चीजों से अब तक रूबरू हुआ, महसूस किया, जाना समझा उसके आधार पर
एक ही निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि विरासत को बाज़ार का अजगर निगले जा रहा है। बाज़ार
हर किसी को किरायेदार बना देना चाहता है । बाज़ार हर आदमी में शहर बो रहा है । शहर
आदमी के अन्दर के गाँव को अपनी कुंडली में लपेट कर उसका दम घोंटने पर उतारू
है। यह प्रक्रिया छुतहे रोग की तरह फैलता जा रही, और सारे लोगों को शहरातू रोगी बनाने पर तुली है। बड़े शातिर अंदाज में बाजार और शहर मिलकर गाँव को समेटने के कुचक्र में लगे हैं।
पहले बाजारू लासा लगाओ फिर किरायेदार बनाओ और अंत में शहरातू बना कर गाँव से जड़े
काट दो। आदमी सूख जाएगा। फिर बाज़ार उसे जलने के लिए शहर की मंडी में सजा देगा।
समस्या का मूल कारण लासा ही है इसी
लासा के चलते सारे कबूतर बहेलिये के जाल में फंस गये थे। इसी लासा के चलते धर्मराज
अपनी पत्नी को जुए में हार गये थे यही लासा जाने कितने पतंगों को आग में जला डालती
है। यही लासा बाजार है यही बाजार शहर है। लासा खींचती है, समेटती है, मारती
है । अगर जीवन को तुरंत के तुरंत समाप्त करना है तो लासा लगा लो लेकिन अगर जीवन का
विस्तार करना है तो अपने अन्दर के गाँव को टटोलो उसे झाड़ पोंछ कर साफ़ करो, खर
पतवारों की निराई कर उसे गीतों से सींचो फिर देखो जो फसल लहलहाएगी कि आप बाजारू दरिद्र
से दानवीर कर्ण बन जायेंगे गाँव का ज़िंदा रहना आपके ज़िंदा होने का सबूत है। क्या
आप ज़िंदा हैं?