यह सदाबहार नजारा है. यमुना का नजदीक से जायजा लेने के लिए आप नोएडा
के ओखला बैराज पहुंचें तो पिघले तारकोल-सा काली यमुना का पानी आगरा कैनाल
में गिरता दिखेगा. मौके से उठ रही तीखी दुर्गंध नथुनों को बेधते हुए जैसे
भेजे में घुस जाती है. बैराज से यमुना की मुख्य धारा में भी एक नाला गिरता
है. उस जगह काले पानी पर झक सफेद झग की मोटी चादर है. शायद इसी को नदी का
कफन कहते हैं. गंगा, यमुना जैसी नदियों का शहर-दर-शहर यही हाल है. 26 साल
से चल रहे गंगा एक्शन प्लान के बाद यह चादर तैयार हुई है. हैरान न हों, इसी
प्लान में यमुना और दूसरी सहायक नदियां भी शामिल हैं.
गंगा एक्शन प्लान-1 शुरू हुआ था 1985 में, और 462 करोड़ रु. खर्च
करने के बाद 31 मार्च, 2000 को उसे समाप्त मान लिया गया. उसके बाद यमुना और
दूसरी नदियों के एक्शन प्लान को एक साथ मिलाकर गंगा एक्शन प्लान-2 शुरू
किया गया. इस पर दिसंबर, 2012 तक 2,598 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किए जा
चुके हैं. लेकिन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े कहते हैं कि
दिल्ली, मथुरा, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना से लेकर गंगासागर
तक शायद ही कोई शहर ऐसा हो जहां गंगा-यमुना में प्रदूषण का स्तर पहले से
रत्ती भर भी कम हुआ हो.
कौन खा गया अरबों रुपए?
अरबों रुपए खर्च करने के बाद यह नतीजा? इसका जवाब मिला, और वह भी
प्रामाणिक स्रोतों से. आइआइटी कानपुर के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर डॉ.
विनोर तारे ने जवाब के रूप में उछाल दिया यह सनसनीखेज सवाल: ‘‘अजी नदी है
कहां, जो साफ की जाए?’’ वे सात आइआइटी की उस संयुक्त विशेषज्ञ टीम के
समन्वयक हैं, जिसे केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने ‘‘गंगा रिवर बेसिन
एन्वायरनमेंट मैनेजमेंट प्लान’’ तैयार करने का जिम्मा सौंपा है.
नदी आखिर गई कहां? यही सवाल वे हजारों लोग भी उठा रहे थे जो ‘‘यमुना
बचाओ यात्रा’’ लेकर पिछले पखवाड़े मथुरा से दिल्ली की सरहद तक आए थे और
यमुना के समानांतर नहर बनाने के सरकारी आश्वासन के बाद वापस लौट गए. पर
आश्वासन देने वाले और उस पर फौरी तौर पर यकीन करने वाले दोनों जानते हैं कि
इस दिलासे से आंदोलन सम्मानजनक ढंग से भले खत्म हो जाए पर एक नदी को बचाने
के लिए यह नाकाफी है. इसी तरह का अहसास उन करोड़ों लोगों ने किया जो इस साल
कुंभ स्नान करने पहुंचे थे. आंकड़ों को गवाह मानें तो इलाहाबाद में संगम के
पास गंगा आज भी उतनी ही गंदी है, जितनी पिछले कुंभ में और उससे भी पिछले
कुंभ में थी. चंद दिनों के लिए नदी को साफ रखने से उसकी स्थायी तस्वीर नहीं
बदलती.
गंगा एक्शन प्लान को जब जमीन पर उतारा गया, उस समय इलाहाबाद में
गंगा में बायो ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) 11.4 मिलीग्राम प्रति लीटर थी.
शुरुआत में तो प्लान ने कमाल ही कर दिया, जब 1991 में बीओडी घटकर 2.3 हो
गई. लेकिन 2001 में यह फिर उछलकर 5.3 पहुंची और 2010 में 5.51 हो गई. ध्यान
रहे कि नहाने लायक पानी में बीओडी 3 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम ही होनी
चाहिए.
यह सूरत बदलती क्यों नहीं? दरअसल अपनी तेज रफ्तार कारों पर इतराती
दिल्ली के निजामुद्दीन पुल के नीचे यमुना की पहली आधिकारिक कब्रगाह है.
पिछले 15 साल का रिकॉर्ड उठाकर देखें तो यहां कुछ अपवादों को छोड़ यमुना के
पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा शून्य के स्तर पर टिकी हुई है. विज्ञान की
भाषा में इसका अर्थ हुआ कि नदी किसी भी तरह के जीवन के लिए अनुकूल नहीं
है. यमुना को इस कदर तबाह किया है दिल्ली ने. इसकी बानगी मिलती है डॉ.
पूर्णेंदु बोस और विनोद तारे की पर्यावरण मंत्रालय को भेजी शोध रिपोर्ट
‘‘रिवर यमुना इन एनसीआर दिल्ली’’ में. रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि
वजीराबाद बैराज के बाद यमुना में जो भी पानी बह रहा है, वह पूरी तरह से
सीवेज का पानी है. यानी दिल्ली में यमुना नहीं सिर्फ नाला बहता है. यमुना
की जो सूरत दिल्ली में है, वही गंगा की कानपुर और दूसरे शहरों में है.
शहरों का पानी गंदा क्यों?
इस तरह का प्रदूषण सिर्फ नदियों को ही नष्ट नहीं कर रहा बल्कि इनके
किनारे बसे शहरों के भूजल को भी बुरी तरह गंदा कर चुका है. दिल्ली, नोएडा
या आगरा में भूजल के खारा या प्रदूषित होने की सबसे बड़ी वजह, इन शहरों में
नदी का सूख जाना और उसकी घाटी में सीवर का बहना है. बरसात को छोड़ बाकी
दिनों में नदियों में पानी का स्तर भूजल स्तर से नीचा होता है और भूजल नदी
में रिसता रहता है. लेकिन नदियों के नष्ट होने के बाद इन शहरों ने भूजल का
जबरदस्त दोहन किया और भूजल स्तर नदी के जल स्तर से नीचे चला गया. नतीजारू
जो भूजल रिसकर नदी में जाना चाहिए था, वह नदी से उसी की ओर आने लगा.
चूंकि नदियां पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी थीं, इसलिए उनकेपानी ने
भूजल को भी नहीं बख्शा. तभी तो डॉ. तारे तल्खी भरे शब्दों में कहते हैं,
‘‘हमने नदियों के साथ ही पूरी सभ्यता को मारने की तैयारी कर ली है.’’ जिस
तरह यमुना से निकलने वाली अमोनिया गैस त्वचा की बीमारियों को बढ़ावा दे रही
है और हाइड्रोजन सल्फाइड गैस भीषण भभका छोड़ रही है, उससे यह बात खुद ही
साबित हो जाती है.
इस बीच, नष्ट की जा रही नदियों के बरक्स कुछ लोग इन्हें बचाने को
बेचौन हैं. दो साल पहले एक संस्था बनी ‘आइआइटियंस फॉर हॉली गंगा.’ इसमें
देश की विभिन्न आइआइटी से निकले और आज प्रतिष्ठित जगहों पर काम कर रहे
विशेषज्ञ शामिल थे. उन्होंने नारा दिया: सबके लिए साफ पानी. संस्था के
अध्यक्ष यतींद्र पाल सूरी कहते हैं, ‘‘आप पूरे इको-सिस्टम को समझे बिना इस
तरह नदियों को नहीं बांध सकते. अविरल गंगा सिर्फ नारा नहीं है, हमारे वक्त
की जरूरत है.’’
आर्सेनिक का जहर
इसी जरूरत को बारीकी से समझने के लिए ऋषिकेश के 36 वर्षीय आचार्य
नीरज ने 2010 में गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा की पैदल यात्रा की.
ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में एमएससी करने के बाद धार्मिक कार्य से जुड़े. आचार्य
का यह तजुर्बा गौर करने लायक था. इस लंबी यात्रा में लगातार गंगा या उसके
पास के हैंडपपों का पानी पीते रहने से उनके शरीर में आर्सेनिक की मात्रा बढ़
गई.
अपनी उम्र से कहीं बड़े नजर आने वाले आचार्य कहते हैं, ‘‘जमीनी स्तर
पर प्रदूषण साफ करने के उपाय कभी लागू हुए ही नहीं. गंगा एक्शन प्लान की
नाकामी की यह एक बड़ी वजह रही.’’ आर्सेनिक नाम बेहद जहरीला रासायनिक तत्व
गंगा की घाटी के भूजल को किस कदर प्रदूषित कर चुका है, इसका खुलासा जाधवपुर
युनिवर्सिटी के प्रो. दीपंकर चक्रवर्ती के 15 साल से चल रहे शोध में
लगातार हो रहा है. वह पटना, बलिया, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर तक बढ़े हुए
आर्सेनिक की पुष्टि कर चुके हैं. ताज्जुब नहीं होगा अगर जल्द ही दिल्ली के
पास गढ़ मुक्तेश्वर तक आर्सेनिक की पुष्टि के प्रमाण मिल जाएं.
इन्हीं विसंगतियों पर जब 11 मार्च को राज्यसभा में चर्चा हुई तो वन
और पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने माना, ‘‘मैं यह दावा नहीं कर रही कि
गंगा एक्शन प्लान के एक-एक पैसे का सही इस्तेमाल हुआ. लेकिन अगर ये प्लान न
बने होते तो स्थिति और बुरी हो चुकी होती.’’ मंत्री ने यह भी स्वीकार किया
कि देश के ज्यादातर ट्रीटमेंट प्लांट म्युजियम की तरह खड़े हैं, वे कभी
अपना काम कर ही नहीं पाए. समाजवादी पार्टी के सांसद मुनव्वर सलीम ने भी
अपनी चिंता जोड़ी कि नदियों को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया जाना
चाहिए.
छब्बीस साल से इस दिशा में जो खानापूरी हुई है, उसके चलते अब
गंगा-यमुना को बचाने के लिए भागीरथ-से प्रयास और कुबेर के खजाने की जरूरत
पडऩे वाली है. पर्यावरण मंत्रालय को भेजी गई आइआइटी कानपुर की रिपोर्ट के
मुताबिक, सिर्फ दिल्ली में यमुना को साफ करने के लिए 15 साल तक हर साल
कम-से-कम 1,217 करोड़ रु. की दरकार है. इसी आंकड़े को आधार मानें तो
गंगा-यमुना को पूरी तरह से साफ करने के लिए कम-से-कम एक लाख करोड़ रु. की
जरूरत पड़ेगी.
तारे को भरोसा है कि इस साल दिसंबर के अंत तक विशेषज्ञ दल जब
रिपोर्ट सौंपेगा तो उसमें भागीरथ प्रयास और कुबेर के खजाने, दोनों का
इंतजाम होगा. तब तक यह सवाल अपनी जगह बना रहेगा, जो 11 मार्च को राज्यसभा
में बीजेपी सांसद अनिल माधव दवे ने इस शेर के जरिए पूछा था: तू इधर-उधर की न
बात कर, ये बता के काफिला क्यूं लुटा?