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आम आदमी" एक सापेक्ष अवधारणा है जो उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जो तुलनात्मक रूप से "नियंत्रक वर्ग" से नही आता है। परिवार से लेकर समाज और राज्य में दो प्रकार के वर्ग देखने को मिलते है प्रथम वे जो किसी न किसी प्रकार नीति निर्माण प्रक्रिया में भागीदार होते है, दुसरे वे जो उन नीतियो का पालन करने वाले होते है। बोलचाल में पहला वर्ग ख़ास या विशिष्ट कहलाता है जबकि दूसरा सामान्य या आम वर्ग कहलाता है इसी के आधार पर इस वर्ग के सदस्यो की पहचान आम या ख़ास आदमी के रूप में होती है। ये वर्ग और इनके सदस्य स्थान समय और परिस्थिति के अनुसार आम और ख़ास में बदलते रहते है। उदहारण के लिए छात्रों के लिए शिक्षक ख़ास या विशिष्ट होता है किन्तु वही शिक्षक प्रबंध कमेटी के लिए "आम" हो जाता है। संख्या की दृष्टि से ख़ास वर्ग का आकार छोटा होता है जबकि आम वर्ग अपेक्षाकृत बड़ा होता है। ख़ास लोगो की सहज उपलब्धता ना होना उन्हें और भी निरंतर ख़ास बनाता है, लेकिन कभी कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है।
आम से ख़ास होना मानवीय स्वभाव है। प्रत्येक मानव इस प्रयास में होता है कि समाज में एक "पहचान" बनाये। यही बात उसे विशिष्ट या ख़ास होने को प्रेरित करती है। किन्तु यही तत्व बाद में वर्ग परिवर्तन का कारक भी बनता है। विशिष्ट होने पर जवाबदेही और जिम्मेदारी सामान्य से अधिक होती है। जब "पद" के अनुसार भूमिका निर्वहन नही की जाती तो सामान्य वर्ग में असंतोष पनपने लगता है इस असंतोष को सामान्य वर्ग में विशिष्टोन्मुखी लोग इसे भांप कर और अधिक टूल देने लगते है और ख़ास लोगो को सामान्य प्रतिभा ,कौशल,जिम्मेदारी और मंतव्य से हीन बताने लगते है। साथ ही वे आम लोगों को अपने विश्वास में लेने लगते है। यहीं पर आम लोगो में एक "ख़ास नेतृत्व" उभरता है जो अपने ख़ास होने का एहसास आम लोगो को नही होने देता और विशिष्ट होने के बावजूद अपने को सामान्य और आम बताता है और इसी मुद्दे के आधार पर ख़ास लोगो को नीति निर्माण प्रक्रिया से बेदखल कर स्वयं नियामक बन जाता है और ख़ास वर्ग में रूपांतरित हो जाता है।
समाजशास्त्री परेटो अपनी पुस्तक माइंड एंड सोसाइटी में दो प्रकार के वर्गों का उल्लेख करते है। शेर के लक्षणो वाला अभिजात्य वर्ग और लोमड़ी के लक्षणो वाला सामान्य वर्ग। शेर अपने साहस के गुण के कारण उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित रहता है जबकि लोमड़ियाँ धूर्तता के गुण के साथ सामान्य वर्ग में होती हैं। शेर जब सत्ता को धूर्तता के सहारे बनाये रखने की कोशिश करता है तो वह लोमड़ी में बदल जाता है और सामान्य वर्ग में आ जाता है वही कुछ लोमड़ियाँ साहस के सहारे उच्च वर्ग में पहुँच जाती है।
"आम आदमी सापेक्षिक वंचना का प्रतीक है" यह कथन एकांगी है। हर आम आदमी में ख़ास आदमी निहित है और हर ख़ास में आम। दोनों को पृथक पृथक देखने या दिखाने पर प्राप्त निष्कर्ष भ्रामक होते है। सामान्य से विशिष्ट और विशिष्ट से सामान्य होने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। प्रक्रियागत दोषो को वर्ग या सत्ता व्यवस्था में ढूंढने के बजाय मानव उद्विकास में ढूंढा जाना चाहिए। विशिष्ट होना प्राय: आरोपित शब्द माना जाता है। यदि विशिष्ट लोग यह अनुभव करें कि उनकी विशिष्टता उनके जिम्मेदारियों के निर्वहन करने की वजह से है तो इस बात से मानव उद्विकास को और गति मिल जायेगी। यहाँ पर गांधी जी का न्यासिता का सिद्धांत और प्रासंगिक हो जाता है। विशिष्टता को नकारने से किसी समस्या का समाधान नही होने वाला है वरन उसे स्वीकारते हुए विशिष्ट व्यवस्था जनित अवगुणो के निराकरण से हम आम और ख़ास को एक दूसरे का पूरक बना कर एक सही समाज का निर्माण कर सकते है।
पवन जी अच्छा विवेचन है पर कुछ ज्यादा ही तकनीकी हो गया है | बुद्धिजीवियों को तो समझ में आ जायेगा पर मेरा मानना है कि इस विवेचना को समझने की आवयश्कता उस वर्ग को अधिक है जो आम को ख़ास बना देती है | क्या ही अच्छा होता कि यदि आप इस विवेचना को कुछ समसामयिक द्रष्टांतों और उदाहरणों से सरल बना देते जिससे यह सबकी समझ में आ जाती | मेरी टिपण्णी यदि अनुचित लगे तो क्षमा चाहूँगा |
जवाब देंहटाएंहर आम आदमी में ख़ास आदमी निहित है और हर ख़ास में आम।
जवाब देंहटाएं"ये वर्ग और इनके सदस्य स्थान समय और परिस्थिति के अनुसार आम और ख़ास में बदलते रहते है|" सीधी और सरल बात | यथाशब्द समझ में आई | आम और ख़ास में अंतर इतनी आसानी से समझा देने के लिए बहुत धन्यवाद |
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