मानव अधिकार की चर्चा होते ही शक्तिबलों और अमानवीय व्यवस्था से पीड़ित निस्सहाय कत्र्तव्यों के चेहरे और उनकी रक्षा के लिए आगे बढ़ते सक्षम हाथों का एक सिलसिला हमारे सामने आता है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था की आत्मा के रूप में मानव अधिकार की अवधारणा को ग्रहण किया जा रहा है। मानवाधिकार 21वीं शताब्दी में एक ताकतवार अवधारणा के रूप में सामने आए हैं। परन्तु हर ताकत की तरह इनके भी नकारात्मक पक्ष से इन्कार नहीं किया जा सकता। अधिकार किसी भी शक्तिशाली शस्त्र के दुरूपयोग की सम्भावना सर्वाधिक तब ही होती है, जब दुरूपयोग की सम्भावनाओं की ओर सबसे कम ध्यान होता है। इसलिए मानवाधिकारों के सर्वाधिक प्रभावी सदुपयोग के लिए आवश्यक है कि मानवाधिकार सम्बन्धी आन्दोलनों के उत्साहपूर्ण प्रवाह में बहते हुए भी इसकी दिशा और सम्भावित संकटों का भली प्रकार विवेचन किया जाए। मानवाघिकार की अवघारणा से जुड़े नकारात्मक संदर्भों के बीज स्वंय इस अवधारणा में ही मिश्रित हैं। मानवाधिकार मूलतः मनुष्य के वे अधिकार हैं जो उसे मानव होने के नाते प्राप्त होनी चाहिए।
सम्भवतः यह अवधारणा बहुत सरल प्रतीत होती है किन्तु और किया जाए तो एक बड़ी राजनीति शास्त्रीय समस्या से दो चार होना पड़ता है। व्यक्ति के अधिकारों को आधुनिक व्यवस्था में नागरिक के अधिकारों के रूप में प्रत्यक्षीकृत किया गया। नागरिक के अधिकार उसे राज्य का सदस्य होने के नाते राज्य से प्राप्त होते हैं। राज्य वह शक्ति है जो इन अधिकारों को सुनिश्चित करती है। इस शक्ति के अभाव में नागरिक अधिकारों का संरक्षण दुष्कर है। कम से कम प्रजातन्त्र में राज्य की यही उपयोगिता है। वस्तुतः अधिकार की अवधारणा ही शक्ति पर आधारित है। अधिकार की प्राप्ति एवं संरक्षण शक्ति पर निर्भर है-वह वैयक्तिक हो या सामूहिक। वैयक्तिक अधिकारों के सहारे उत्पन्न होने वाले दमन का ही प्रत्युत्तर अथवा समाधान राज्य संरक्षित नागरिक अधिकारों के रूप में प्राप्त होता है। इसीलिए राज्य सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्थापित हुआ। राज्य के सामाजिक संविदा के सिद्धान्त की यही मूल आत्मा है। नागरिक अधिकारों का संरक्षण प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राज्य का मूल कर्तव्य माना गया।
अब यहां प्रश्न उठता है कि नागरिक अधिकारों और विधिक अधिकरों के बाद मानवाधिकार की क्या आवश्यकता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मानवाधिकार की धारणा प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से राज्य की सत्ता पद प्रश्नाचिन्ह लगती है। राज्य नागरिक-विहीन अधिकारों का संरक्षण करता है। यहां समस्या यह उत्पन्न होती है कि यदि बात अधिकारों की है तो शक्ति चाहिए और यदि वह शक्ति राज्य की नही है तो कौन सी शक्ति होगी - निश्चय ही राज्येतर शक्ति। किसी राज्य की सीमा के अन्तर्गत राज्येतर शक्ति दो प्रकार की हो सकती - आन्तरिक एवं वाहृय। इस प्रकार दो प्रकार की शक्तियों के हस्तक्षेप का मार्ग खुल जाता है - एक तो राज्य विरोधी आन्तरिक शक्तियां और दूसरी अन्य राज्यों की शक्ति। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ही स्थितियाँ अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली राज्यों हेतु बहुत खतरनाक हैं। यहाँ कहने का यह तात्पर्य नहीं कि मानवाधिकार की चर्चा करने वाले सभी व्यक्ति या संगठन राज्य विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक स्थिति और सम्भावित संकट की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐतिहासिक तथ्यों की विवेचना से भी इस संकट की प्राप्ति होती है।
यदि थोड़ा सा भी ध्यान दिया जाए तो यह देखा जा सकता है कि मानवाधिकारों की चर्चा गत 20-30 वर्षों में अधिक होने लगी है। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता की इसके पहले मानवाधिकारों का हनन न था अथवा मानवीय चेतना अल्प-विकसित थी। फिर ऐसा क्या हुआ तीन दशक पूर्व? ध्यान दिया जाना चाहिए कि सोवियत संघ का विघटन नब्बे के दशक की महत्वपूर्ण घटना थी। रूस के विघटन ने यूरोप के भू-राजनीतिक स्वरूप को अचानक बदल दिया। दूसरी ओर विश्व के द्वि-धु्रवीय से एक-धु्रवीय होने की सम्भावनाएँ प्रबल हो गयी। चीन का शक्तिशाली स्वरूप भी तब उभर कर सामने न आया था। द्वितीय महायुद्ध के बाद और शीतयुद्ध के दौरान एक राज्य का दूसरे राज्य के आन्तरिक मामलो में हस्तक्षेप दुष्कर था, क्योंकि हर जगह एक समान शक्तिशाली अन्र्तराष्ट्रीय प्रतिरोध मौजूद होता था। मानवाधिकारों के 1949 के संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र में भी मानवाधिकारों का संरक्षण या केयरटेकर राज्य में ही गया था। चूंकि संयुक्त राष्ट्र संघ और कानून दोनों ही राज्य की सीमा के अन्तर्गत राज्य की प्रभुसत्ता को स्वीकार करते थे, इसलिए किसी राज्य में आन्तरिक हस्तक्षेप को उत्सुक शक्तियों के लिए एक ध्रुवीय विश्व में ऐसा करने में समर्थ थी। ऐसा करने के नैतिक आहार की तलाश थी।
उपरोक्त दृष्टिबिन्दु को समझने के लिए यूरोप में नाटो राष्ट्रों की कोसोव में हस्तक्षेप की घटना श्रेष्ठ उदाहरण है। मानवाधिकारों के संरक्षण (?) में शक्ति प्रयोग का यह उदाहरण मानवाधिकारों सम्बन्धी विमर्श एवं प्रयासों की दिशा में एक निर्णायक मोड़ हैं। कोसोब समराज्य यूगोस्लाविया की समस्या थी ओर इसका रूप से कोई सम्बन्ध न था। दूसरी ओर नाटो का गठन, विधिक रूप से रूस से उत्पन्न खतरों से नाटों देशों की रक्षा के लिए हुआ था। यूगोस्लाविया नाटो का सदस्य न था। वहाँ के आन्तरिक युद्ध से नाटो देशों को कोई खतरा भी न था। फिर भी नाटों देशों के वहां सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लिया। इसका नैतिक आधार मानवाधिकारों की रक्षा को बनाया गया। समस्याग्रस्त इलाके से जुड़ा एक मात्र नाटो देश ग्रीस था, जिसने इस आयोजन का समर्थन नहीं किया और सैन्य भागीदारी से विरत रहा। फिर भी सैन्य अभियान हुआ और पूरी ताकत से हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि वहाँ से हटा लिए गए। अमेरिका सहित नाटो देशों के उत्साहवर्धन, युद्धक विमान, युद्धपोत, प्रक्षेपास्त्र, बमों का प्रचुर प्रयोग वहाँ की रक्षा हेतु किया गया। यूगोस्लाविया की हवाई पट्टियां और सैन्य ठिकाने ही नहीं बल्कि कारखाने, पुल, वाणिज्य केन्द्र भी चुन-चुन कर नष्ट किए गए। शरणार्थियों का समूह भी बमबारी से न बचा। समाचार एजेन्सी के कार्यालय पर बम गिराए गए। चीनी दूतावास भी बमबारी से नष्ट किया गया। यूगोस्लाविया का अर्धतंत्र नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इस प्रकार विधिक अधिकार के दायरे से निकलते हुए मानवाधिकारों के रक्षा का प्रथम उपक्रम पूर्ण हुआ। इसके बाद तो यह क्रम रूकने का नाम ही न ले रहा। कभी ईराक तो कभी अफगानिस्तान।
यहाँ पर हमारा उद्देश्य किसी राष्ट्र विशेष अथवा अमेरिका को दोषी सिद्ध करना मात्र नहीं है। ध्यातव्य यह है कि अधिकार की रक्षा शक्ति से ही होनी है और यदि विधिक या राज्यीय शक्ति से इतर अपरिभाषित शक्ति के जिम्मे इसे छोड़ दिया जाए तो उस शून्य को अनायास ही कोई भी शक्ति-केन्द्र भरने को प्रस्तुत हो जाएगा और स्वाभाविक कि उस शक्ति केन्द्र के अपने हित भी इस घटना का एक आयाम मात्र है। राज्य विरोधी आन्दोलनों (आतंकवाद सहित) द्वारा मानवाधिकारों का ढाल की तरह प्रयोग आम बात है। इस क्रम में गैर सरकारी संगठनों (एन0जी0ओ0) की उत्साहपूर्ण भागीदारी भी एक आयाम है। मुद्दों के चयन में बड़े शक्ति केन्द्रों के हित प्रभावी होते हैं। कश्मीरी पण्डितों के हितों एवं अधिकारों की उपेक्षा इसका एक उदाहरण है ही, साथ ही इसका भी की ऐसे संगठन मुद्दों के चयन में अन्जाने ही किस प्रकार बड़े शक्ति केन्द्रों पर निर्भर हो जाते हैं। आर्थिक एवं वाणिज्य क्षेत्र में भी इसका प्रयोग अवश्य है और होता है। खुले व्यापार की भरपूर वकालत करते हुए भी किसी दूसरे देश से प्रतिस्पद्र्धी उत्पाद को मानवाधिकार के आधार पर प्रतिबन्धित कर देना एक सरल उपाय है। कुछेक संगठनों का शोर शराबा किसी भी राज्य के आतंकवाद के विरूद्ध अयोग्य की धार को कुंठित करने में समर्थ है। विशेष रूप से तब, जबकि अन्य समर्थ राष्ट्र ऐसा चाह लें।
संक्षेप में कहा जाए तो एक-ध्रुवीय विश्व मंे सर्वोच्च सत्ता केन्द्र द्वारा राज्य एवं विधि के नियमों के प्रतिबन्ध का उल्लंघन कर वैश्विक हस्तक्षेप के नैतिकीकरण का उपकरण बनने की सम्भावना मानवाधिकार की अवधारणा में निहित है। दूसरी ओर राज्य विरोधी एवं अराजक संगठनों हेतु इन्हें ढाल के रूप में प्रयोग किया जाना सम्भव है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या मानवाधिकार की धारणा ही त्याज्य है? यदि नहीं, तो इसके दुरूपयोग की स्थितियों एवं सम्भावनाओं के निवारण का क्या उपाय हो सकता है?
वस्तुतः समस्या मानवीयता की भावना एवं धारणा में नहीं, बल्कि अधिकार की धारणा एवं भावना में है। मानवाधिकारों के दुरूप्योग पर विश्व स्तर पर पर्याप्त चर्चा हुई है, किन्तु सुस्पष्ट निष्कर्ष प्राप्त न किया जा सका। इसका कारण कि आधुनिक पाश्चात्य चिन्तन एवं व्यवस्था अधिकार पर आधारित है और अर्थवाद के साथ शक्ति एवं बल जुड़े ही हैं तो फिर दमन को कब तक रोका जा सकता है। इसका समाधान एशियाई और विशेषतः भारतीय चिन्तन में प्राप्त है। यदि प्राचीन भारतीय आचार संहिताओं का गम्भीर अध्ययन हो तो हम पाते हैं कि वहां व्यवस्था का निरूपण कर्तव्यों पर आधारित है। यह सत्य है कि अधिकार एवं कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि दोनों एक नहीं है। अधिकार की चर्चा अन्ततः संघर्ष की ओर और कर्तव्य की चर्चा सामान्जस्य की ओर ले जाती है। मानवाधिकार की चर्चा, जहां पूर्व में अब तक सर्वमान्य संख्या एवं विधि पर स्थापित व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगती है, वहीं मानवाधिकार का दुरूपयोग सम्पूर्ण मानवीय अधिकार की दिशा के निर्धारण पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है। आवश्यकता सुधार की नहीं बदलाव की है - दार्शनिक दृष्टि एवं विश्व व्यवस्था की संकल्पना में बदलाव की।