शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

नदियों का निरादर : ज्ञानेंद्र रावत


इसे अपनी संस्कृति की विशेषता कहें या परंपरा, हमारे यहां मेले नदियों के तट पर, उनके संगम पर या धर्म स्थानों पर लगते हैं और जहां तक कुंभ का सवाल है, वह तो नदियों के तट पर ही लगते हैं। आस्था के वशीभूत लाखों-करोड़ों लोग आकर उन नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जित कर खुद को धन्य समझते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे उस नदी के जीवन के बारे में कभी भी नहीं सोचते। देश की नदियों के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड ने जो पिछले दिनों खुलासा किया है, वह उन संस्कारवान, आस्थावान और संस्कृति के प्रतिनिधि उन भारतीयों के लिए शर्म की बात है, जो नदियों को मां मानते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है।

वर्ष 2008 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, ये शहर और कस्बे 38,254 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) गंदा पानी छोड़ते हैं, जबकि ऎसे पानी के शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कथन बिलकुल सही है। नदियों को प्रदूषित करने में दिनों दिन बढ़ते उद्योगों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है। कारण आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। यह उस देश में हो रहा है, जहां आदिकाल से नदियां मानव के लिए जीवनदायिनी रही हैं। 

उनकी देवी की तरह पूजा की जाती है और उन्हें यथासंभव शुद्ध रखने की मान्यता व परंपरा है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है। एक संस्कारवान भारतीय के मन-मानस में नदी मां के समान है। उस स्थिति में मां से स्नेह पाने की आशा और देना संतान का परम कर्तव्य हो जाता है। फिर नदी मात्र एक जलस्त्रोत नहीं, वह तो आस्था की केंद्र भी है। विश्व की महान संस्कृतियों-सभ्यताओं का जन्म भी न केवल नदियों के किनारे हुआ, बल्कि वे वहां पनपी भी हैं। 

वेदकाल के हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित पूरे संसार की और देखने की सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने पाषाण में भी जीवन देखने का जो मंत्र दिया, उसके कारण देश में प्रकृति को समझने व उससे व्यवहार करने की परंपराएं जन्मीं। यह भी सच है कि कुछेक दशक पहले तक उनका पालन भी हुआ, लेकिन पिछले 40-50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़े हैं, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। असल में जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार हुआ, प्रदूषण ने नदियों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। 

लिहाजा, कहीं नदियां गर्मी का मौसम आते-आते दम तोड़ देती हैं, कहीं सूख जाती हैं, कहीं वह नाले का रूप धारण कर लेती हैं और यदि कहीं उनमें जल रहता भी है तो वह इतनी प्रदूषित हैं कि वह पीने लायक भी नहीं रहता है। देखा जाए तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में भी हमने कोताही नहीं बरती। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़, सभी का दोहन करने में कीर्तिमान बनाया है। हमने दोहन तो भरपूर किया, उनसे लिया तो बेहिसाब, लेकिन यह भूल गए कि कुछ वापस देने का दायित्व हमारा भी है। नदियों से लेते समय यह भूल गए कि यदि जिस दिन इन्होंने देना बंद कर दिया, उस दिन क्या होगा? आज देश की सभी नदियां वह चाहे गंगा, यमुना, नर्मदा, ताप्ती हो, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी हो, ब्रह्मपुत्र, सतलुज, रावी, व्यास, झेलम या चिनाब हो या फिर कोई अन्य या इनकी सहायक नदियां। ये हैं तो पुण्य सलिला, लेकिन इनमें से एक भी ऎसी नहीं है, जो प्रदूषित न हो। 

असल में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदियों गंगा-यमुना को लें, उनको हमने इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रूपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी उनकी हालत 20 साल पहले से ज्यादा बदतर है। मोक्षदायिनी राष्ट्रीय नदी गंगा को मानवीय स्वार्थ ने इतना प्रदूषित कर डाला है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई एक जगहों पर गंगाजल आचमन लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत उसमें डुबकी लगा ली तो त्वचा रोग के शिकार हुए बिना नहीं रहेंगे। कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं, कभी खराब न होने वाला गंगाजल का खास लक्षण-गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो. बी.डी. जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है। 

दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा, तमाम जहरीला रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे का तोहफा देकर वही उसका जीवन लेने पर तुले हैं। असल में अपने 1376 किमी लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी का अकेले दो फीसदी यानी 22 किमी के रास्ते में मिलने वाली 79 फीसदी दिल्ली की गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएं बन चुकी हैं और यमुना को टेम्स बनाने का नारा भी लगाया जा रहा है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे हैं। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का अभियान पिछले लगभग 20 साल से चल रहा है। 

इसकी शुरूआत राजीव गांधी की पहल पर गंगा सफाई अभियान से हुई थी। अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिराया जा रहा है। नर्मदा को लें, अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों से गुजरकर अरब सागर में मिलने तक कुल 1,289 किलोमीटर की यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली के गंभीर परिणाम सामने आए। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाने वाली और आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की हुई, जो आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी जल धाराएं भी सूख गई हैं। 

आज नदियां मलमूत्र विसर्जन का माध्यम बनकर रह गई हैं। ग्लोबल वार्मिग का खतरा बढ़ रहा है और नदी क्षेत्र पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और जल संकट और गहराएगा ही। ऎसी स्थिति में हमारे नीति-नियंता नदियों के पुनर्जीवन की उचित रणनीति क्यों नहीं बना सके, जल के बड़े पैमाने पर दोहन के बावजूद उसके रिचार्ज की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके, वर्षा के पानी को बेकार बह जाने देने से क्यों नहीं रोक पाए और अतिवृष्टि के बावजूद जल संकट क्यों बना रहता है, यह समझ से परे है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि जल संकट दूर करने के शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देर हो जाएगी और मानव अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

रविवार, 12 अप्रैल 2015

गाँव का ज़िंदा रहना आपके ज़िंदा होने का सबूत है।

हर एक व्यक्ति के अन्दर एक गाँव होता है । गाँव कोई स्थान विशेष संज्ञा न होकर एक गुणवाचक शब्द है, जिसके अर्थ विस्तृतता में निहित हैं।.गाँव की मर्यादा क्षितिज के सरीखे होती है, जितने उसके  पास आओ उतना ही उसका विस्तार होता जाता है और इस विस्तृतता में रस है, शहद के गंध में भीगी हवायें हैं,जल से भरे बादल हैं, ऊर्जा  से भरी धूप है, उमंगयुक्त गीत है,नेह है,सम्बंध है,संरक्षण है और जीवन है।

सारा गाँव, सारे खेत कियारी, सारे बाग़, सारे ताल, घर, दुआरगोरू, बछरू, चकरोट, कोलिया, पुलिया, सड़क, सेंवार, बबुराही, बँसवारी, परती, नहरा, नालीबरहानार, मोट, लिजुरी, बरारी, इनारा, खटिया, मचिया, लाठी, डंडा, उपरी, कंडा और बचपन जिसे छोड़कर हम शहर चले आए कि बड़ा आदमी बन जायेंगे, बड़ा आदमी बने कि नही बने ये तो नही पता लेकिन  किरायेदार जरुर बन गये । शहर के किरायेदार । रहने खाने का किराया, पानी का किराया, टट्टी-पेशाब का किराया, सडक पर चलने का किराया, किराए के कपड़े, किराए के ओहदे, किराए के रिश्ते, किराये का हँसना, रोना, गाना, बजाना  और  किराये की जिन्दगी।

किरायेदारी के अनुबंध की शर्ते हमेशा  मालिक और गुलाम का निर्माण करती हैं चाहे रूप और नाम कुछ भी हों पर प्रकृति घोर सामंती  ही है। गाँव से निकली गंगा शहरी सीवर में कब बदल जाती है और सीवर पर किराया कब लग जाता है इस पर शोध करने लायक मेरे पास किराया नही है। फिर भी जिन चीजों से अब तक रूबरू हुआ, महसूस किया, जाना समझा उसके आधार पर एक ही निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि विरासत को बाज़ार का अजगर निगले जा रहा है। बाज़ार हर किसी को किरायेदार बना देना चाहता है । बाज़ार हर आदमी  में शहर बो रहा  है । शहर  आदमी के अन्दर के गाँव को अपनी कुंडली में लपेट कर उसका दम घोंटने पर उतारू है। यह  प्रक्रिया छुतहे  रोग की तरह फैलता जा रहीऔर सारे  लोगों को शहरातू रोगी बनाने पर तुली  है। बड़े शातिर अंदाज में बाजार और शहर  मिलकर गाँव को समेटने के कुचक्र में लगे हैं। पहले बाजारू लासा लगाओ फिर किरायेदार बनाओ और अंत में शहरातू बना कर गाँव से जड़े काट दो। आदमी सूख जाएगा। फिर बाज़ार उसे जलने के लिए शहर की मंडी में सजा देगा।


समस्या का मूल कारण लासा ही है इसी लासा के चलते सारे कबूतर बहेलिये के जाल में फंस गये थे। इसी लासा के चलते धर्मराज अपनी पत्नी को जुए में हार गये थे यही लासा जाने कितने पतंगों को आग में जला डालती है। यही लासा बाजार है यही बाजार शहर है। लासा खींचती है, समेटती है, मारती है । अगर जीवन को  तुरंत के तुरंत समाप्त  करना है तो लासा लगा लो लेकिन अगर जीवन का विस्तार करना है तो अपने अन्दर के गाँव को टटोलो उसे झाड़ पोंछ कर साफ़ करो, खर पतवारों की निराई कर उसे  गीतों से सींचो  फिर देखो जो फसल लहलहाएगी कि आप बाजारू दरिद्र से दानवीर कर्ण बन जायेंगे गाँव का ज़िंदा रहना आपके ज़िंदा होने का सबूत है। क्या आप ज़िंदा हैं?

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

कहानी गाँव गाँव की (यह कहानी नही शब्दशः सत्य है )

हमारे गाँव में गोलारे मिसिर और दुधई मिसिर दो भाई थे। दोनों के पास गाँव की चार आना जमीन थी । गोलारे के दो पुत्र हुए लाले और लुल्ली। दूधई के खानदान में पुट्टू पुकनू पलटू और कलई हुये। इन लोगों के पास कुल मिलाकर सवा सौ बीघे जमीन होगी । गोलारे और दुधई के मरते ही गाँव के लंबरदारों ने उनके बच्चों को समझाया।इतनी सारी जमीनों का कुछ करो नहीं तो चकबंदी के चक्कर में जमीन सरकार ले लेगी या भूदान आन्दोलन के चलते तुम्हारी जमीनें हरिजनों को दे दी जायेंगी। पुट्टू की अगुवाई में जमीन का सबसे सही उपयोग उसे बेंचना समझा गया सो सबने जमीन बेंचना शुरू किया ।

हमारे बाबूजी कहते थे धरती माँ होती है, अपनी जमीन बेंचना माँ को बेचने जैसा है । सूखी रोटी खा लो, पानी पीकर पेट की आग बुझा लो, मुला जमीन को बेचने की बात राम राम पुरखों को का मुंह दिखाओगे?
पर पुट्टू एंड कंपनी धरती माँ को बेंचते गयी । गाँव के लम्बरदार लोग बैनामा करा करा बरफी चांपते गये । एक दिन ऐसा आया कि जमीन के नाम पर इन लोगों के पास कच्चे घर रह गये। फिर हमने कुछ दिनों बाद देखा घर की मिट्टी का कतरा कतरा बिक गया। फिर भूखे मरते पुट्टू, पुकनू, लाले, लुल्ली, कलई और पलटू लंबरदारों के यहाँ रिक्शा चलाने और छान छप्पर छ्हाने मिट्टी काटने और मौसमी मजदूरी का काम करने लगे।
ठीक यही हाल भुल्लुर के लड़के छंगू का हुआ । मुरली के बच्चों मंगरू और सम्हरू का हुआ। पाठक खानदान का हुआ। बबऊ तेवारी का हुआ। अब हालत ये है कि ये सब इंदिरा गांधी आवास योजना के तहत गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों को दी जाने वाली गृह सुविधा के तहत बने बदबूदार कोठरियों में रह रहे हैं ।
अब ये भूमिहीन हैं । सरकार ने तो इनकी जमीने नहीं ली ।
इनकी हालत का जिम्मेदार कौन ? सरकार या ये स्वयं या बरफी खाने वाले लम्बरदार? 

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गंदगी का निस्तारण समस्या का जड़मूल है।


गंदगी का निस्तारण समस्या का जड़मूल है। बाकी बातें अनुशासनहीनता और बेहूदा आदतों से जुडी हैं। एक बात स्पष्ट कर दूँ कि विलासी वर्ग द्वारा जितनी तीव्रता के साथ गंदगी पैदा की जाती है वह अत्यंत खतरनाक है। गरीबों में बेहूदापन हो सकता सभ्य तौर तरीके के विपरीत आचरण हो सकते हैं किन्तु उनका कचरा ऐसी समस्या नही पैदा करता जिसका समाधान न हो।
साबुन शैम्पू , पाउडर, जेल, परफ्यूम कपडे लत्ते, खान पान, रहन सहन, पैकेट, शौचस्नान, यहां तक कि प्रजननरोधी उपकरणो से जो गंदगी पैदा होती है उसके पुनर्चक्रण या निष्पादन के तरीके आधुनिक विज्ञान खोज नही पाया है। इसके अलावा रासायनिक, आणविक, युद्ध के लिए प्रयुक्त सामग्रियों से उत्पन्न कचरे के निपटान की बात तो अभी चिंता का विषय वस्तु ही नही बना।

एक सवाल पर मंथन करेंगे?

घुरहू(काल्पनिक नाम ) अपने अरहर के खेत में रोज सुबह मल विसर्जित करने जाता है। उसका मल दो चार दिन में अपघटकों द्वारा अपघटित कर मिटटी की उर्वरता में बदल दिया जाता है और परिणामस्वरूप फसल को रासायनिक उर्वरकों से बचा कर देश की मुद्रा बचायी जा सकती है।
......या
मिस्टर आर के वर्मा (काल्पनिक नाम )अपनी इटैलियन संडास में जाकर पानी में मल त्याग करते हैं और ढेर सारे टिस्यू पेपर के साथ वह गन्दगी, गंगा -यमुना में विभिन्न बीमारी पैदा करने वाले रोगाणुओं के साथ मिलती है और पवित्र नदियों को दूषित कर देती है। पानी में मानव मल कभी अपघटित नही होता बल्कि पानी के साथ मिलकर हैजा बन जाता है।
दोनों में कौन गंदगी के लिए जिम्मेदार है ? 

गंदगी एक आधुनिक अवधारणा है जिसकी जड़े औद्यौगिक क्रान्ति और विज्ञानवाद में है।  पत्तों पर पानी देकर कुछ समय के लिए पेड़ को चमकदार देखा जा सकता है पर थोड़े दिन बाद पेड़ का सूखना निश्चित है। रही बात विदेशों में साफ़ सफाई का तो उनके यहाँ कचरे की डंपिंग को लेकर जो बवाल हो रहा है उसको हम नही देख पा रहे या देखना नही चाहते।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

कश्मीर में बाढ़ और विकास

विकास का पैमाना मानव की चेतना, सहनशीलता और सामंजस्य करने की क्षमता पर आधारित है इसके पश्चात कोई भी प्रक्रिया सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ती है।
कश्मीर में लगभग पचास के आस पास झीलें और तालाबों के ऊपर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए। मुम्बई में मीठी नदी की तरह यहाँ भी पानी के परंपरागत निकासी स्रोत्तों पर अतिक्रमण कर उन्हें समाप्त कर दिया गया।
आज प्राकृतिक वस्तुओं पर जिस तरह से अतिक्रमण कर वहाँ होटल, मॉल  बिल्डिंग बनाकर वह की सुंदरता और वहां की जीवोक्रेसी को ख़त्म किया जा रहा प्रकृति का रिएक्शन उसी का परिणाम है।
इन प्राकृतिक आपदाओं के माध्यम से प्रकृति ने अपनी बात मानव के समक्ष रखी है।प्रकृति को विनम्रता पूर्वक समझना और उसके हिसाब से चलने में ही मानव का अस्तित्व कायम रह पायेगा अन्यथा डायनासौर की गति को प्राप्त करने में देर नहीं होगी।


बुधवार, 16 जुलाई 2014

तालाब खतम, पानी खतम, गाँव कैसे ज़िंदा रहेगा ?

हमारे गाँव को तालाबों का गाँव कहा जाता था। 

सिउपूजन दास कहते थे... 

छंगापुरा एक दीप है बसहि गढ़हिया तीर।  
पानी राखो कहि गए सिउपूजन दास कबीर।।  

हमारे गांव के उत्तर की तरफ  बड़का तारा करीब बीस बीघे में फैला हुआ।  फिर पंडा वाला तारा पूरब में दामोदरा और मिसिर का तारा कोने में तलियवा।  पच्छिम में दुर्बासा तारा, दक्खिन में गुड़ियवा तारा। इसके अलावा हर घर के आस पास फैले खाते और बड़े बड़े गड़हे वाटर हार्वेस्टिंग के जबरदस्त स्रोत पूर्वजों द्वारा  आने वाली पीढ़ियों के लिए बनाये गए थे। बाग़ बगीचों से लदा फंदा और पानी से भरे कुंओ और ठंडी ठंडी हवाओं वाला  हमारा गाँव बारहो महीने खुशहाली के गीत गौनही गाता था। 

समय बदला पैंडोरा बॉक्स खुला। लालच और ईर्ष्या के कीट बॉक्स में से निकल कर हमारे गाँव में शहर वाली सड़क और टीवी के रस्ते घुस गए।  

कल मेरा भतीजा आया था बता रहा था कि चाचा अपना कुंआ अब सूख रहा है।  गाँव में तकरीबन सारे कुंये सूख गए हैं।  लोगों ने अब सबमर्सिबल लगवा लिए है बटन दबाया पानी आ गया।  पंडा वाला तालाब को पाट  दिया गया है  वहा दीवार उठा दी गई है। लल्लू कक्का ने घर के सामने का खाता पाट दिया है। गुड़ियवा और तलियये वाला तालाब खेत में बदल गया है।  बाग़ को काट काट लोग लकड़ियां बेंच पईसा बना रहे।  अब गाँव में हर घर टीवी है रोज बैटरी चार्ज कराने को लेकर झगड़ा मचा रहता है।  बाप खटिया में खांसता रहता है बच्चे मोबाइल में  रिमोट से लहंगा उठाने वाला गाना सुनने में मस्त। गाँव में कंक्रीट के चालनुमा मकान सरकारी आवास योजना से बन कर तैयार हो रहे जिसे ग्राम प्रधान कमीशन लेकर बाँट रहा।  हर घर में अलगौझी।  भाई भाई से छोड़िये बाप अलगौझी अऊर अबकी गाँव में छंगू  की मेहरारू  छंगुआ के जेल भिजवाई के केहु अऊर के साथ जौनपुर भागी है। इज्जत आबरू मान मर्यादा सब खत्म। 
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तालाब खतम 
पानी खतम 
गाँव कैसे ज़िंदा रहेगा ?

सोमवार, 26 मई 2014

शैक्षिक गुणवत्ता, मुनाफा और विदक्षता का दुष्चक्र।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था "विदक्षता" (Deskilling) के दुष्चक्र में फंस गयी है।  शैक्षिक प्रसार के नाम पर पूरी  व्यवस्था  को निजी संस्थाओं के हवाले किया जा रहा है।    ऐसे में शैक्षिक गुणवत्ता का स्थान मुनाफे ने ले लिया है। येन केन प्रकरेण मुनाफा प्राप्त करना ही संस्थाओं का अंतिम उद्देश्य बन चुका है। कोई भी शराब बनाने वाला, मिठाई बनाने वाला,कबाड़ व्यापारी, माफिया, नेता, अपराधी  देश हित या समाज हित को आड़ बनाकर पैसे के जोर से शिक्षाविद बन जाते है और महज पैसा बनाने के लिए स्कूल कॉलेज या यूनिवर्सिटी खोल लेते है। 
 लग्जरियस इंफ्रास्ट्रक्चर, फर्जी आंकड़े, फर्जी सूचनाओं एवं दलालो के सहारे कालाबाजारी कर "इन्टेक" पूरा करते है। इस प्रक्रिया में दूर दराज के छात्रों को बहला फुसलाकर उन्हें सुनहरे सपने दिखा कर उन्हें  संस्थाओं में एजेंट को मोटी  रकम देकर एडमिट किया जाता है . फिर उनकी पढ़ाई लिखाई के लिए अकुशल शिक्षक ( हालांकि कागजी  आंकड़ों में ये संस्थान हाई क्वालिफाइड टीचर्स दिखाते है जो अधिकतर उस संस्थान के निरीक्षण के समय भौमिक सत्यापन हेतु मौजूद रहते है और निश्चित रकम लेते है) रखे जाते है। ये अकुशल शिक्षक या तो " फ्रेशर" होते है अल्प जानकारी रखने वाले या कम वेतन पर काम करने को "विवश" लोग। मजे की बात तो यह है कि निजी संस्थाओं में हाई डिग्री होल्डर के ऊपर हमेशा निकले जाने की तलवार लटकती रहती है क्योंकि संस्थान के मालिक को मनोवैज्ञानिक भय होता है की हाई प्रोफाइल टीचर उसके कंट्रोल में नही आएगा और अधिक वेतन की मांग करेगा। इसलिए ये लोग साक्षात्कार के दौरान ही हाई क्वालिफाइड कैंडिडेट को पहले से बाहर कर देते हैं। इस प्रकार एक अकुशलता का चक्र बनता है।  अकुशल शिक्षक के अध्यापन से जो छात्र तैयार होंगे वो भी गुणवत्ता विहीन होंगे और जब ये क्षेत्र में काम करने जाएंगे चाहे वह उत्पादन हो या सेवा क्षेत्र वहा भी गुणवत्ता मानको से नीचे ही रहेगी।  परिणाम यह होगा कि इनके द्वारा निर्मित उत्पाद या दी गई सेवा राष्ट्रीय/ अंतराष्ट्रीय मानको पर खरी नही उतरेगी और प्रतिद्वंदिता में कही पीछे छूट जाएगी।  इसका असर अर्थव्यवस्था पर पडेगा और अर्थव्यवस्था दबाव में आ जाएगी। पुनश्च बड़े पैमाने पर छंटनी की प्रक्रिया में ये अकुशल लोग भारी मात्र में निकाले जाते है जो एक्सपीरियंस के आधार पर किसी न किसी  निजी शैक्षणिक संस्था में फिर पढ़ाने का कार्य करने लगते है वो भी कम वेतन पर। इस प्रक्रिया में अच्छे शिक्षको को नौकरी से हाथ धोना पड़ता है।  यह ठीक उसी तरह से है कि ब्लैक मनी वाइट मनी को चलन से बाहर कर देता है।

फिर वही विदक्षता का दुष्चक्र . 
यहाँ एक बात और गौर   करने लायक है कि इन संस्थाओं में कार्यरत शिक्षक एवं संस्था प्रमुख के बीच सामंत और दास जैसा रिश्ता होता है शिक्षक चाहे कितना भी प्रशिक्षित और योग्य हो संस्था प्रमुख हमेशा उसे हिकारत से देखता है  कई बार उसे उसकी हैसियत याद करवाता है। सारा का सारा खेल मुनाफे का है कुल मिलाकर चाटुकारिता भ्रष्टाचार के सहारे पूंजीपतियों ने शिक्षा व्यवस्था को अत्यंत दूषित एवं भ्रष्ट  कर दिया है जो पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार और बिगड़ी अर्थव्यवस्था का मूल कारण है।