गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

आम आदमी(Common Man/Mango Man/ Aam Admi) : एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण


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आम आदमी"  एक सापेक्ष अवधारणा है जो उस व्यक्ति की  ओर संकेत करता है जो तुलनात्मक रूप से "नियंत्रक वर्ग" से नही आता है।  परिवार से लेकर समाज और राज्य में दो प्रकार के वर्ग देखने को मिलते है प्रथम वे जो किसी न किसी प्रकार नीति निर्माण प्रक्रिया में भागीदार होते है, दुसरे वे जो उन नीतियो का पालन करने वाले होते है।  बोलचाल में पहला वर्ग ख़ास या विशिष्ट कहलाता है जबकि दूसरा सामान्य या आम वर्ग कहलाता है इसी के आधार पर इस वर्ग के सदस्यो की पहचान आम या ख़ास आदमी के रूप में होती है। ये वर्ग और इनके सदस्य स्थान समय और परिस्थिति के अनुसार आम और ख़ास में बदलते रहते है।  उदहारण के लिए छात्रों के लिए शिक्षक ख़ास या विशिष्ट होता है किन्तु वही शिक्षक प्रबंध कमेटी के लिए "आम" हो जाता है।  संख्या की दृष्टि से ख़ास वर्ग का आकार छोटा होता है जबकि आम वर्ग अपेक्षाकृत बड़ा होता है। ख़ास लोगो की सहज उपलब्धता ना होना उन्हें और भी निरंतर ख़ास बनाता है, लेकिन कभी कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है।  

आम से ख़ास होना मानवीय स्वभाव है। प्रत्येक मानव इस प्रयास में होता है कि समाज में एक "पहचान" बनाये।  यही बात उसे विशिष्ट या ख़ास होने को प्रेरित करती है।  किन्तु यही तत्व बाद में वर्ग परिवर्तन का कारक भी बनता है। विशिष्ट होने पर जवाबदेही और जिम्मेदारी सामान्य से अधिक होती है। जब "पद" के अनुसार भूमिका निर्वहन नही की जाती तो सामान्य वर्ग में असंतोष पनपने लगता है इस असंतोष को सामान्य वर्ग में विशिष्टोन्मुखी लोग इसे भांप कर और अधिक टूल देने लगते है और ख़ास लोगो को सामान्य प्रतिभा ,कौशल,जिम्मेदारी और मंतव्य से हीन बताने लगते है। साथ ही वे आम लोगों को अपने विश्वास में लेने लगते है। यहीं पर आम लोगो में एक "ख़ास नेतृत्व" उभरता है जो अपने ख़ास होने का एहसास आम लोगो को नही होने देता और विशिष्ट होने के बावजूद अपने को सामान्य और आम बताता है और इसी मुद्दे के आधार पर ख़ास लोगो को नीति निर्माण प्रक्रिया से बेदखल कर स्वयं नियामक बन जाता है और ख़ास वर्ग में रूपांतरित हो जाता है।  

समाजशास्त्री  परेटो अपनी पुस्तक माइंड  एंड सोसाइटी में दो प्रकार के वर्गों का उल्लेख करते है। शेर के लक्षणो वाला अभिजात्य वर्ग और लोमड़ी के लक्षणो वाला सामान्य वर्ग।  शेर अपने साहस के गुण के कारण उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित रहता है जबकि लोमड़ियाँ धूर्तता के गुण के साथ सामान्य वर्ग में होती हैं। शेर जब सत्ता को धूर्तता के सहारे बनाये रखने की कोशिश करता है तो वह लोमड़ी में बदल जाता है और सामान्य वर्ग में आ जाता है वही कुछ लोमड़ियाँ साहस के सहारे उच्च वर्ग में पहुँच जाती है।  

"आम आदमी सापेक्षिक वंचना का प्रतीक है" यह कथन एकांगी है।  हर आम आदमी में ख़ास आदमी निहित है और हर ख़ास में आम।  दोनों को पृथक पृथक देखने या दिखाने पर प्राप्त निष्कर्ष भ्रामक होते है। सामान्य से विशिष्ट और विशिष्ट से सामान्य होने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है।  प्रक्रियागत दोषो को वर्ग या सत्ता व्यवस्था में ढूंढने के बजाय मानव उद्विकास में ढूंढा जाना चाहिए। विशिष्ट होना प्राय: आरोपित शब्द माना जाता है।  यदि विशिष्ट लोग यह अनुभव करें कि उनकी विशिष्टता उनके जिम्मेदारियों के निर्वहन करने की वजह से है तो इस बात से मानव उद्विकास को और गति मिल जायेगी।  यहाँ पर गांधी जी का न्यासिता का सिद्धांत और प्रासंगिक हो जाता है।  विशिष्टता को नकारने से किसी समस्या का समाधान नही होने वाला है वरन उसे स्वीकारते हुए विशिष्ट व्यवस्था जनित अवगुणो के निराकरण से हम आम और ख़ास को एक दूसरे का पूरक बना कर एक सही समाज का निर्माण कर सकते है।  

बुधवार, 15 मई 2013

भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण बनाम सांस्क़ृतिक संघर्ष

 
वैश्वीकरण शब्द को विश्व की संस्कृतियो अर्थव्यवस्थाओं तथा राज व्यवस्थाओं का एक दूसरे के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों जिसमें सात्मीकरण एवं अलगाव दोनों सम्मिलित हैं, के क्रम में समझा जा सकता है।

      वैश्वीकरण के सुविधानुसार कई पर्याय बना दिये गये हैं, जिसमें भूमण्डलीकरण और उदारीकरण प्रमुख हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक ज्या बोद्रिला वैश्वीकरण और भूमण्डलीकरण में अन्तर करते हुए कहते हैं कि ‘‘वैश्वीकरण का सम्बन्ध मानवाधिकार स्वतंत्रता, संस्कृति और लोकतंत्र से है। वहीं भूमण्डलीकरण प्रौद्योगिकी, बाजार, पर्यटन और सूचना से ताल्लुक रखता है।’’ उदारीकरण का तात्पर्य प्रमुखतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से है, जिसमें सीमा-शुल्क में भारी कटौती की जाती है ताकि विदेशी सामान सस्ते दरों पर देश में बिक सके।

             राज्य मौलिक अधिकारों के माध्यम से नागरिक अधिकारों की रक्षा की गारण्टी देता है, अनुच्छेद-21 में प्रदत्त जीवन सुरक्षा का अधिकार आपातकाल के दौरान भी नहीं हटाया जा सकता। एक विश्व अर्थव्यवस्था की दिशा में कार्यरत वैश्वीकरण की प्रक्रिया बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से राज्य को कमजोर करती है। ये कम्पनियाँ अपने मुनाफे के लिए एक तरफ राज्य की जैव विविधता एवं पर्यावरण का शोषण करती हैं, दूसरी ओर कमजोर मानवाधिकार कानूनों के कारण स्थानीय व्यक्तियों की स्वतंत्रताओं का हनन करती हैं। वस्तुतः विश्व वित्त बाजार राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के नियंत्रण से काफी हद तक बाहर है। इससे राज्य, समुदाय एवं व्यक्ति की शक्तियों एवं स्वतंत्रताओं का क्षरण हुआ है। राज्य एकपक्षीय बनता जा रहा है, वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों का प्रतिनिधित्व तो कर रहा है किन्तु नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने एवं उनके हितों के प्रतिनिधित्व में असफल हो रहाहै।
 
ठीक यही स्थिति सांस्क़ृतिक तथ्यो से जुडी है संस्कृति सापेक्ष होती है अर्थात् दूसरी संस्कृति की तुलना में किसी और संस्कृति को अच्छा और बुरा नहीं कहा जा सकता है। किन्तु वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वृहद परम्परायें, लघु परम्पराओं को दबाने का काम करती है। मीडिया एवं उपनिवेशवादी ताकतों के सहारे स्थानीय संस्कृतियों को उपेक्षणीय बना दिया जाता है, जैसे भारत में अभिजात्यवर्ग या उच्चमध्यमवर्गीय घरों में लोकगीतों का गाया जाना या अन्य सांस्कृतिक तथ्यों को लेकर किया जाने वाला उपेक्षणीय व्यवहार सांस्कृतिक असामन्जस्य क्षेत्रीय संघर्ष को जन्म देता है।
 
 

मंगलवार, 14 मई 2013

नशे के कारोबार मे राज्य की भूमिका

ड्रग्स का उपयोग लगभग उतना ही पुराना है जितनी पुरानी मानव सभ्यता। लेकिन अधिक नशे की लत और खतरनाक सिंथेटिक दवाएं पश्चिमी देशों के द्वारा शुरू किए गए थे, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के आधुनिक युग के दौरान। ड्रग्स दो प्रकार होते हैं साफ्ट और हार्ड,  साफ्ट  ड्रग्स कम नशे की लत और कम हानिकारक है।  हार्ड ड्रग की कठोरता से नशे की तीव्र लत पड जाती  है जो व्यक्ति और समाज के  लिए बहुत अधिक खतरनाक है। साफ्ट ड्रग्स को विभिन्न संस्कृतियों में लोग एक लंबे समय के बाद से इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन तथ्य  यह है कि विभिन्न आधुनिक हार्ड ड्रग्स का आविष्कार द्वितीय विश्व युद्ध और शीत युद्ध के युग के दौरान राज्य एजेंसियों की मदद से किया गया। हार्ड ड्रग का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप एल.एस.डी. (lysergic Acid diethylamide)  है जिसकी खोज औद्योगिक रसायनज्ञ अल्बर्ट हॉफमैन ने की थी। एलएसडी का प्रयोग  प्रतिद्वंद्वी देशों के एजेंटों से  महत्वपूर्ण जानकारी को  प्राप्त करने  के लिये शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी एजेंसियों द्वारा इस्तेमाल किया गया था। इस उद्देश्य के लिए सीआईए द्वारा कई प्रयोग और  शोध किए गए, सीआईए के निर्देश पर  तीस से अधिक विश्वविद्यालयों और संस्थानों में एक 'व्यापक प्रयोग परीक्षण' कार्यक्रम  शुरु हुआ. इस प्रयोग के दौरान जाने कितने परीक्षण गुप्त रूप से अविकसित देशो और अज्ञात नागरिको पर किये गये. इस प्रक्रिया मे इसी परियोजना से जुडे डा. ओल्सन की मृत्यु भी हुयी. सीआईए कार्यक्रम मुख्यतः MKULTRA के नाम से जाना जाता है,  यह 1950 में शुरू हुआ.
1960 में हिप्पी आंदोलन का पश्चिमी संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा, संगीत, कला और युवा अमेरिकियों के हजारों युवा सैन फ्रांसिस्को में इकट्ठा हुये।  हालांकि आंदोलन सैन फ्रांसिस्को में केन्द्रित था, पर प्रभाव दुनिया भर मे पड रहा था. ये हिप्पी आधुनिकता की वर्जनाओ को तोड कर 'फ्रेमलेस जीवन' को अपनाने का प्रयास कर रहे थे, जो राज्य को मंजूर नही था. फलस्वरूप एल एस डी  दवाओं का उपयोग कर के पूरी की पूरी युवा खेप को नशेडी बना देने का संस्थागत प्रयास किया गया।
राज्य नशे का कारोबार बखूबी करता है. प्रथम दृष्टया लगता है कि राज्य एक आदर्शात्मक संस्था है, पर इसे नियंत्रित करने वाले ही इसके चरित्र का निर्माण करते है. इस समय अमेरिका नशे का सबसे बडा कारोबारी है.  अमेरिका सहित तमाम राज्यों दवाओं के  नशे के मुद्दे पर दोहरे मानदंड निम्नलिखित हैं। चाहे इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करे किंतु सरकार की छिपी नीतिया इसका घोर समर्थन करती है। अमेरिकी और पाकिस्तान समेत अरब देशो की खुफिया एजेंसियों अपने ‘मुखौटे अभियान’ चलाने के लिए बहुत ज्यादा पूंजी की आवश्यकता होती है। उनको अपने स्थानीय एजेंटोंको  पैसे और हथियार के लिए नशा कारोबर एक सस्ता विकल्प लगता है. ऐसी परिस्थितियों जब राज्य खुद ड्रग्स के धन्धे को प्रमोट करता हो तो भविष्य क्या होगा अनुमान लगाना मुश्किल है कमोबेश आतंकवाद भी एलएसडी ही जैसा है जिसे राज्य ने ही प्रमोट किया हुआ है. यह समस्या एक ही तरीके से कम हो सकती है और वह तरीका उच्च स्तर की अंतरराष्ट्रीय समझ और विभिन्न राज्यों के बीच आम सहमति के माध्यम से ही संभव हो सकता है.
 
 

बुधवार, 8 मई 2013

गंगा प्रदूषण से सम्बन्धित आंकडे और धाराओ की वर्तमान स्थिति

 
गंगा प्रदूषण से सम्बन्धित आंकडे निम्नलिखित है.

१.गंगा में गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक प्रतिदिन १४४.२ मिलियन क्यूबिक मलजल प्रवाहित किया जाता है.
२. गंगा में लगभग ३८४० नाले गिरते है.
३.गंगा तट पर स्थापित औद्योगिक इकाईया प्रतिदिन ४३० मिलियन लीटर जहरीले अपशिष्ट का उत्सर्जन करती है जो सीधे गंगा में बहा दिया जाता है.
४. लगभग १७२.५ हजार टन कीटनाशक रसायन और खाद हर वर्ष गंगा में पहुचता है.
५.वर्तमान समय में गंगा में डालफिन लुप्तप्राय है. उत्तर प्रदेश में मात्र १०० बची है.
६.गंगा किनारे ३ किलोमीटर के दायरे में धोबीघाट पाए जाते है जो ४० से ६० प्रतिशत फास्फोरस डिटर्जेंट के माध्यम से पहुचा रहे है.
७. गंगा बेसिन में केवल १४.३ परसेंट वन शेष रह गए है.
इन सबकी वजह से गंगा की प्रमुख धाराओं की वर्तमान स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी है.अब गंगा कचरे की संस्कृति का प्रतीक बन गयी है
नीचे गंगा से सम्बंधित तकरीबन सभी धाराओं का विवरण दिया गया है...
१ गणेश गंगा (पातालगंगा )---- सूखी
२ गरुड्गंगा ------ सूखी
३ ऋषी गंगा ----- जलस्तर में तेजी से गिरावट
४ रूद्र गंगा ------ विलुप्त
५ धवल गंगा ------ जलस्तर में तेजी से गिरावट
६ विरही गंगा ------ जलस्तर में तेजी से गिरावट
७ खंडव गंगा ----- विलुप्त
८ आकाश गंगा ------ जलस्तर में तेजी से गिरावट
९ नवग्राम गंगा ------ विलुप्त
१० शीर्ष गंगा ----- विलुप्त
११ कोट गंगा ----- विलुप्त
१२ गूलर गंगा ----- जलस्तर में तेजी से गिरावट
१३ हेम गंगा ----- सूखी
१४ हेमवती गंगा ---- विलुप्त
१५ हनुमान गंगा ---- जलस्तर में तेजी से गिरावट
१६ सिध्तारंग गंगा ---- जलस्तर में तेजी से गिरावट
१७ शुद्ध्तारंगिनी गंगा ---- विलुप्त
१८ धेनु गंगा ----- विलुप्त
१९ सोम गंगा ----- विलुप्त
२० अमृत गंगा ----- जलस्तर में तेजी से गिरावट
२१ कंचन गंगा ----- वनस्पति के तीव्र दोहन से गादयुक्त हो गयी है
२२ लक्ष्मण गंगा ------ जलस्तर में तेजी से गिरावट
२३ दुग्ध गंगा ----- विलुप्त
२४ घृत गंगा ----- विलुप्त
२५ रामगंगा ----- तेजी से सूख रही है
२६ केदार गंगा जलस्तर में तेजी से गिरावट               
गंगा के नाम पर अपनी दूकान चलाने वाले गंगा का सर्वनाश करके छोड़ेगे. इस देश में गंगा से कोई प्यार नही करता. नहीं तो ऐसी दुर्दशा पर क्रांति मच जानी चाहिए था. वे जिन्हें तथाकथित नाज है अपनी संस्कृति पर, संस्कृति की आत्मा गंगा की कोई खोज खबर नहीं लेते क्योकि आत्मा नाम की वस्तु आउट आफ डेट हो गयी है.
 

विषमुक्त और शून्य लागत की खेती: 'सैम्पल एक्सपेरीमेंट'

आईआई.टी. मे हुयी मानव मूल्य कार्यशाला के दौरान मै गोपाल उपाध्याय के सम्पर्क मे आया. उन्होने सुभाष पालेकर जी का जिक्र करते हुये मुझे फर्रुखाबाद आने का निमंत्रण दिया. यहा मुझे बाग़डिया जी के द्वारा पालेकर जी के कार्यो की जानकारी मिल चुकी थी. मै बागडिया जी और संतोष भदौरिया के  के संस्थान मे जाकर विषमुक्त खेती का अवलोकन कर चुका था. इन सब से एबात मेरे मन मे पुख्ता तौर पर बैठती जा रही थी कि जो 'हरित क्रांति विकास' का माडल किसानो के लिये प्रचारित किया जा रहा है वह धरती के शोषण पर आधारित है, और आज नही तो कल इसका भयंकर परिणाम भुगतना पडेगा. जैसा कि पंजाब मे अब दिखायी देने लगा है. मैने अपने बडे भईया राजकुमार जी को कानपुर बुलाकर इस विषय पर मंत्रणा की और उन्हे इसके लिये तैयार किया. भाई गोपाल और सुभाष पालेकर का  मार्गदर्शन मिला और हम लोगो ने अपने खेत मे एक 'सैम्पल एक्सपेरीमेंट' किया. 
विषमुक्त खेती मे रासायनिक खाद, कीटनाशक, गोबर का कम्पोस्ट, संकर बीज या हाईब्रीड किस्मो का प्रयोग बिलकुल नही किया जाता. बल्कि गोमूत्र के फर्मेंटेशन के द्वारा एक घोल तैयार किया जाता है जिसके छिडकाव से प्राकृतिक रूप से धरती मे जीवाणु सक्रिय हो जाते है और फसलो के लिये लाभदायक होते है. इसमे पानी का भी इस्तेमाल कम होता है. इस प्रकिया का एक स्लोगन है 'एक गाय देशी दस एकड खेती'.गाय का देशी होना महत्वपूर्ण है. लोग जर्सी को गाय की प्रजाति कहते है पर मेरे हिसाब से यह सुअर प्रजाति है इसे गाय मानना ठीक वैसे है जैसे नीलगाय को गाय मानना. इस खेती से हम पुन: गाय और धरती से अपने सम्बन्ध ठीक कर पायेंगे और इन के आशीर्वाद से  पुन:  हर घर मे दूध घी और अन्नपूर्णा का वास हो सकेगा.
         एक साथ आठ फसले जिसमे सूरजमुखी, मूंग, गन्ना, कद्दू, भिंडी,टमाटर और प्याज और ककडी है,ली जा रही है.
                                                       मूंग
                                                           सूरजमुखी
                                                       विषमुक्त प्याज दिखाते मेरे बडे भाई
                                                 ये बिना रासायनिक खाद के उत्पादित मक्का है
                                                               भिंडी
                                                             कद्दू

                             प्रयोग की सफलता के बाद की मुसकराहट के साथ मै. 

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

औद्योगीकरण और आधुनिकता से हमे क्या मिला? बीस जवाब

औद्योगीकरण और आधुनिकता  से हमे क्या मिला ?
उत्तर निम्नलिखित है ...
1.बडी मशीने
2.बडे सिद्धांत/कम अनुपालन
3.बडे हथियार
4.बडे युद्ध
5.बढी हुयी सुविधाये
6.बढी हुयी तनख्वाह/आनुपातिक कम होती मजदूरी
7.बढी हुयी उम्मीदे
8.मानवीय और प्राकृतिक संसाधनो का अधिकतम दोहन
9.कृत्रिमता
10.दूषित वातावरण
11.दूर दर्शन, दूर गमन, दूर श्रवण
14.सभ्यता और असभ्यता के पूर्वाग्रही पैमाने
15.तार्किकता को भावनाओ से ज्यादा महत्व
16.प्राथमिक अर्थव्यवस्था को दोयम मानना
17.बाजारू चीजो को प्रतिष्ठापरक बनाना
18.लोकतंत्र के बहाने कुलीनतंत्र की स्थापना
19.शक्ति का अधिकतम केन्द्रीकरण
20. सामाजिक संस्थाओ के कार्यो का राज्य को स्थानांतरण
अगर आप इन उत्तरो से संतुष्ट नही है तो हमे सुझाव दीजिये... या फिर कोई जवाब छूट गया हो तो भी की









बुधवार, 10 अप्रैल 2013

नदी प्रदूषण: जीवनदायी नदियों ने अब ओढ़ लिया कफन; इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट

 


यह सदाबहार नजारा है. यमुना का नजदीक से जायजा लेने के लिए आप नोएडा के ओखला बैराज पहुंचें तो पिघले तारकोल-सा काली यमुना का पानी आगरा कैनाल में गिरता दिखेगा. मौके से उठ रही तीखी दुर्गंध नथुनों को बेधते हुए जैसे भेजे में घुस जाती है. बैराज से यमुना की मुख्य धारा में भी एक नाला गिरता है. उस जगह काले पानी पर झक सफेद झग की मोटी चादर है. शायद इसी को नदी का कफन कहते हैं. गंगा, यमुना जैसी नदियों का शहर-दर-शहर यही हाल है. 26 साल से चल रहे गंगा एक्शन प्लान के बाद यह चादर तैयार हुई है. हैरान न हों, इसी प्लान में यमुना और दूसरी सहायक नदियां भी शामिल हैं.
गंगा एक्शन प्लान-1 शुरू हुआ था 1985 में, और 462 करोड़ रु. खर्च करने के बाद 31 मार्च, 2000 को उसे समाप्त मान लिया गया. उसके बाद यमुना और दूसरी नदियों के एक्शन प्लान को एक साथ मिलाकर गंगा एक्शन प्लान-2 शुरू किया गया. इस पर दिसंबर, 2012 तक 2,598 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं. लेकिन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े कहते हैं कि दिल्ली, मथुरा, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना से लेकर गंगासागर तक शायद ही कोई शहर ऐसा हो जहां गंगा-यमुना में प्रदूषण का स्तर पहले से रत्ती भर भी कम हुआ हो.
कौन खा गया अरबों रुपए?Yamuna ganga
अरबों रुपए खर्च करने के बाद यह नतीजा? इसका जवाब मिला, और वह भी प्रामाणिक स्रोतों से. आइआइटी कानपुर के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर डॉ. विनोर तारे ने जवाब के रूप में उछाल दिया यह सनसनीखेज सवाल: ‘‘अजी नदी है कहां, जो साफ की जाए?’’ वे सात आइआइटी की उस संयुक्त विशेषज्ञ टीम के समन्वयक हैं, जिसे केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने ‘‘गंगा रिवर बेसिन एन्वायरनमेंट मैनेजमेंट प्लान’’ तैयार करने का जिम्मा सौंपा है.
नदी आखिर गई कहां? यही सवाल वे हजारों लोग भी उठा रहे थे जो ‘‘यमुना बचाओ यात्रा’’ लेकर पिछले पखवाड़े मथुरा से दिल्ली की सरहद तक आए थे और यमुना के समानांतर नहर बनाने के सरकारी आश्वासन के बाद वापस लौट गए. पर आश्वासन देने वाले और उस पर फौरी तौर पर यकीन करने वाले दोनों जानते हैं कि इस दिलासे से आंदोलन सम्मानजनक ढंग से भले खत्म हो जाए पर एक नदी को बचाने के लिए यह नाकाफी है. इसी तरह का अहसास उन करोड़ों लोगों ने किया जो इस साल कुंभ स्नान करने पहुंचे थे. आंकड़ों को गवाह मानें तो इलाहाबाद में संगम के पास गंगा आज भी उतनी ही गंदी है, जितनी पिछले कुंभ में और उससे भी पिछले कुंभ में थी. चंद दिनों के लिए नदी को साफ रखने से उसकी स्थायी तस्वीर नहीं बदलती.
गंगा एक्शन प्लान को जब जमीन पर उतारा गया, उस समय इलाहाबाद में गंगा में बायो ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) 11.4 मिलीग्राम प्रति लीटर थी. शुरुआत में तो प्लान ने कमाल ही कर दिया, जब 1991 में बीओडी घटकर 2.3 हो गई. लेकिन 2001 में यह फिर उछलकर 5.3 पहुंची और 2010 में 5.51 हो गई. ध्यान रहे कि नहाने लायक पानी में बीओडी 3 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम ही होनी चाहिए.
यह सूरत बदलती क्यों नहीं? दरअसल अपनी तेज रफ्तार कारों पर इतराती दिल्ली के निजामुद्दीन पुल के नीचे यमुना की पहली आधिकारिक कब्रगाह है. पिछले 15 साल का रिकॉर्ड उठाकर देखें तो यहां कुछ अपवादों को छोड़ यमुना के पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा शून्य के स्तर पर टिकी हुई है. विज्ञान की भाषा में इसका अर्थ हुआ कि नदी किसी भी तरह के जीवन के लिए अनुकूल नहीं है. यमुना को इस कदर तबाह किया है दिल्ली ने. इसकी बानगी मिलती है डॉ. पूर्णेंदु बोस और विनोद तारे की पर्यावरण मंत्रालय को भेजी शोध रिपोर्ट ‘‘रिवर यमुना इन एनसीआर दिल्ली’’ में. रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि वजीराबाद बैराज के बाद यमुना में जो भी पानी बह रहा है, वह पूरी तरह से सीवेज का पानी है. यानी दिल्ली में यमुना नहीं सिर्फ नाला बहता है. यमुना की जो सूरत दिल्ली में है, वही गंगा की कानपुर और दूसरे शहरों में है.
शहरों का पानी गंदा क्यों?river ganga
इस तरह का प्रदूषण सिर्फ नदियों को ही नष्ट नहीं कर रहा बल्कि इनके किनारे बसे शहरों के भूजल को भी बुरी तरह गंदा कर चुका है. दिल्ली, नोएडा या आगरा में भूजल के खारा या प्रदूषित होने की सबसे बड़ी वजह, इन शहरों में नदी का सूख जाना और उसकी घाटी में सीवर का बहना है. बरसात को छोड़ बाकी दिनों में नदियों में पानी का स्तर भूजल स्तर से नीचा होता है और भूजल नदी में रिसता रहता है. लेकिन नदियों के नष्ट होने के बाद इन शहरों ने भूजल का जबरदस्त दोहन किया और भूजल स्तर नदी के जल स्तर से नीचे चला गया. नतीजारू जो भूजल रिसकर नदी में जाना चाहिए था, वह नदी से उसी की ओर आने लगा.
चूंकि नदियां पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी थीं, इसलिए उनकेपानी ने भूजल को भी नहीं बख्शा. तभी तो डॉ. तारे तल्खी भरे शब्दों में कहते हैं, ‘‘हमने नदियों के साथ ही पूरी सभ्यता को मारने की तैयारी कर ली है.’’ जिस तरह यमुना से निकलने वाली अमोनिया गैस त्वचा की बीमारियों को बढ़ावा दे रही है और हाइड्रोजन सल्फाइड गैस भीषण भभका छोड़ रही है, उससे यह बात खुद ही साबित हो जाती है.
इस बीच, नष्ट की जा रही नदियों के बरक्स कुछ लोग इन्हें बचाने को बेचौन हैं. दो साल पहले एक संस्था बनी ‘आइआइटियंस फॉर हॉली गंगा.’ इसमें देश की विभिन्न आइआइटी से निकले और आज प्रतिष्ठित जगहों पर काम कर रहे विशेषज्ञ शामिल थे. उन्होंने नारा दिया: सबके लिए साफ पानी. संस्था के अध्यक्ष यतींद्र पाल सूरी कहते हैं, ‘‘आप पूरे इको-सिस्टम को समझे बिना इस तरह नदियों को नहीं बांध सकते. अविरल गंगा सिर्फ नारा नहीं है, हमारे वक्त की जरूरत है.’’
आर्सेनिक का जहर
इसी जरूरत को बारीकी से समझने के लिए ऋषिकेश के 36 वर्षीय आचार्य नीरज ने 2010 में गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा की पैदल यात्रा की. ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में एमएससी करने के बाद धार्मिक कार्य से जुड़े. आचार्य का यह तजुर्बा गौर करने लायक था. इस लंबी यात्रा में लगातार गंगा या उसके पास के हैंडपपों का पानी पीते रहने से उनके शरीर में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ गई.
अपनी उम्र से कहीं बड़े नजर आने वाले आचार्य कहते हैं, ‘‘जमीनी स्तर पर प्रदूषण साफ करने के उपाय कभी लागू हुए ही नहीं. गंगा एक्शन प्लान की नाकामी की यह एक बड़ी वजह रही.’’ आर्सेनिक नाम बेहद जहरीला रासायनिक तत्व गंगा की घाटी के भूजल को किस कदर प्रदूषित कर चुका है, इसका खुलासा जाधवपुर युनिवर्सिटी के प्रो. दीपंकर चक्रवर्ती के 15 साल से चल रहे शोध में लगातार हो रहा है. वह पटना, बलिया, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर तक बढ़े हुए आर्सेनिक की पुष्टि कर चुके हैं. ताज्जुब नहीं होगा अगर जल्द ही दिल्ली के पास गढ़ मुक्तेश्वर तक आर्सेनिक की पुष्टि के प्रमाण मिल जाएं.
इन्हीं विसंगतियों पर जब 11 मार्च को राज्यसभा में चर्चा हुई तो वन और पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने माना, ‘‘मैं यह दावा नहीं कर रही कि गंगा एक्शन प्लान के एक-एक पैसे का सही इस्तेमाल हुआ. लेकिन अगर ये प्लान न बने होते तो स्थिति और बुरी हो चुकी होती.’’ मंत्री ने यह भी स्वीकार किया कि देश के ज्यादातर ट्रीटमेंट प्लांट म्युजियम की तरह खड़े हैं, वे कभी अपना काम कर ही नहीं पाए. समाजवादी पार्टी के सांसद मुनव्वर सलीम ने भी अपनी चिंता जोड़ी कि नदियों को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया जाना चाहिए.
छब्बीस साल से इस दिशा में जो खानापूरी हुई है, उसके चलते अब गंगा-यमुना को बचाने के लिए भागीरथ-से प्रयास और कुबेर के खजाने की जरूरत पडऩे वाली है. पर्यावरण मंत्रालय को भेजी गई आइआइटी कानपुर की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ दिल्ली में यमुना को साफ करने के लिए 15 साल तक हर साल कम-से-कम 1,217 करोड़ रु. की दरकार है. इसी आंकड़े को आधार मानें तो गंगा-यमुना को पूरी तरह से साफ करने के लिए कम-से-कम एक लाख करोड़ रु. की जरूरत पड़ेगी.
तारे को भरोसा है कि इस साल दिसंबर के अंत तक विशेषज्ञ दल जब रिपोर्ट सौंपेगा तो उसमें भागीरथ प्रयास और कुबेर के खजाने, दोनों का इंतजाम होगा. तब तक यह सवाल अपनी जगह बना रहेगा, जो 11 मार्च को राज्यसभा में बीजेपी सांसद अनिल माधव दवे ने इस शेर के जरिए पूछा था: तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता के काफिला क्यूं लुटा?
                                                                          ...पीयूष बबेले की रिपोर्ट, इंडिया टुडे, 3 अप्रैल2013