बुधवार, 30 नवंबर 2011

लवकुश आश्रम मे एक दिन.

पिछले रविवार को मै और डॉ पंकज सिंह(हम दोनों एक ही जगह पढ़ाते है) जीवन विद्या से जुड़े संतोष सिंह भदौरिया जी द्वारा स्थापित लवकुश आश्रम का अवलोकन  करने गए थे. यहाँ प्राकृतिक खेती पशुपालन व मानव मूल्यों की शिक्षा दी जाती है. बैल चालित मशीन  से चारा कतरने पानी निकालने व आटाचक्की चलाने  का काम होता है. भदौरिया जी मध्यस्थ दर्शन के प्रवर्तक श्री ए नागराज (अमरकंटक) जी के शिष्य है. नागराज जी का मानना है की इस समय " आदमी को मशीन जैसा बनाया जा रहा है और मशीन को आदमी जैसा." मानव की आत्मनिर्भरता उसके सम्बन्ध पूर्वक जीने में होती है. जब मानव सभी प्राणियों के साथ सह अस्तित्व  को स्वीकार कर लेता है और सह अस्तित्व  में जीना सीख लेगा  है तो वह सुखी हो जाएगा.








                                       

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सई नदी मृत नदी क्यो? जंगल माफियाओ का कारनामा


सई नदी को मृत नदी के रूप मे तब्दील किया जा चुका है. यह तब्दीली और कही से नही आयी बल्कि वही के लोगो  की वजह से आयी है. मै लगभग ढाई महीने पहले जब नदी के किनारे गया था तो वहा नाम मात्र का पानी था. आस पास के लोगो से बात चीत के आधार पर ज्ञात हुआ कि बरसात के दिनो मे सई का पानी किनारे बसे गावो मे भर जाता है. सई नदी को ध्यान से देखने के बाद मुझे पता चलाकि यह नदी छिछली होती जा रही है. नदी के पुल के इस पार धीरदास  धाम है जहा एक बाबा की समाधि बनी हुयी है. उस पार चुंगी है. हालांकि अब बन्द हो गयी है. चुंगी के नीचे की हलचल देखकर मै वहा देखा तो माजरा समझ मे आया. यहा जंगल माफियाओ क स्वर्ग दिखा मुझे. नदी के किनारे पेडो की कटान अपने चरम पर थी. मैने कैमरा निकाल कर कुछ स्नैप्स लिये. यह देखकर एक मोटा आदमी आकर धमकाने लगा. जल्दी जल्दी कैमरा जेब मे ठूस कर वहा से निकला. धीर दास की ओर जाते हुये मैने सोचा कि इतने सई नदी और बाबा के भक्त लोग यहा है बावजूद इसके इन गुंडो और अपराधिये की रोक टोक करने वाला कोई नही है.

पेड कटने से मिट्टी  स्वतंत्र हो जाती है (जिसको जडे बाधे रहती थी) और नदी मे सीधे पहुचती है फिर नदी की तलहटी मे जमा होती रहती है. जिससे नदी उथली होने लगती है. यही चीज बाद मे नदी के सूखने और बाढ का कारण बनती है.इसी वजह से जीव जंतु और अन्य वनस्पतिया भी विकसित नही हो पाते और नतीजा नदी मृत्यु की ओर बढने लगती है. 




सई के किनारे लकडियो का ढेर 





जंगल कटान मे लगे लोग





कटान मे प्रयुक्त मशीने




 सई नदी का उथलापन 

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

वास्तविक हरित क्रांति का पहला चरण: बैल चालित पम्प


भारत में तकनीकी विकास इतना हो गया हम चाँद और मंगल पर बेस बनाने  की तैयारी में लगे है. किन्तु आज भी लगभग ३० परसेंट जनता दो वक्त की रोटी का इंतजाम बमुश्किल कर पाती है तो ऐसे  में तकनीकी विकास की सार्थकता पर बड़ा  प्रश्नचिन्ह लगता है.

तकनीकी विकास मतलब उपग्रह छोड़ना संकर प्रजाति के बीज बनाना सूचना आदान प्रदान की सहूलियतो  को तीव्र करने  इत्यादि से लगाया जाता है.जबकि विकास पैमाना यह होना चाहिए कि शोषण से कितनी मुक्ति मिली और प्रक्रति से कितना तादात्म्य स्थापित हुआ. 

उपर्युक्त सिद्धांत को अमलीजामा पहनाते हुए कानपुर के वैज्ञानिको और किसानो के मिलेजुले प्रयासों से एक बैल चालित पम्प का विकास किया गया है. बैलो के प्रयोग से एक तरफ जहा डीजल की बहुमूल्य  बचत करके कृषि कार्य को आत्म निर्भता की ओर ले जाया जा सकता है वही ट्रैक्ट्रर के इस्तेमाल करने वाली भारी भरकम लागत से भी निजात पाया जा सकता है. 

इस पम्प की विस्तृत जानकारी इस विडियो के माध्यम से दी गयी है


इस यंत्र की कीमत बोरिंग समेत लगभग 58 हजार रूपये है. सरकार से इस पर सब्सिडी देने क अनुरोध किया गया है किंतु अभी तक कोइ संतोषजनक जवाब नही मिला है. 
इस प्रकार यह स्वदेशी तकनीक है जिसके सहारे हम वास्तव मे हरित क्रांति की ओर सतत रूप से बढ  सकते है.



नोट: इस यंत्र का प्रयोग  कानपुर मे करौली और परियर नामक स्थान पर सफलतापूर्वक किसानो द्वारा किया जा रहा है. यदि किसी को यह अप्प्लीकेशन देखना हो तो वह यहा आकर देख सकता है.

बुधवार, 1 जून 2011

आज मै गंगा प्रदूषण पर किये गए पिछले अध्ययनों के आधार पर यह घोषित कर रहा हूँ कि गंगा सफाई के लिए किये जाने वाले सभी प्रयास बंद कर दिए जाने चाहिए. मिस्टर जयराम रमेश सुन रहे हो ?

आज मै गंगा प्रदूषण पर किये गए पिछले अध्ययनों के आधार पर यह घोषित कर रहा हूँ कि गंगा सफाई  के लिए किये जाने वाले सभी प्रयास बंद कर दिए जाने चाहिए. गंगा को साफ़ करने की कोई जरूरत नही. क्यों?
कारण...
१. बहता हुआ जल अपनी सफाई स्वयं कर लेता है.
२. दरअसल गंगा सफाई अभियान  एक बहुत बड़ा षड्यंत्र और धोखा है. गंगा को साफ़ करना और गंदा करना एक चोखा धंधा बन चुका है जिसमे कार्पोरेट जगत, राजनेता, नौकरशाह, गैर  सरकारी संगठन का कुत्सित गठजोड़ शामिल है. पहले गंगा में गन्दगी फेंकी जाएगी फिर उसे साफ़ करने के लिए फंड आएगा. इस फंड को जारी करने वाली मीटिंग और उसके प्रपोजल  से लेकर जो पैसे खाने का सिलसिला चलता है वह अंत में स्वनाम धन्य गंगाप्रहरियो की तिजोरियो में जाकर विलीन हो जाता है. फिर ज्यादा से ज्यादा गंगा के घाटों पर साफ़ सफाई का काम करके गंगा सफाई की इति श्री कर ली जाती है. गंगा में गन्दगी पूर्ववत. फिर से इस गठजोड़ का रोना पीटना शुरू. फिर फंडिंग. फिर ऐश ही ऐश. ये अंत हीन सिलसिला है. जब तक गंगा की सफाई का कार्यक्रम बंद नही कर दिया जाता.
३.गंगा के स्वच्छ रहने की सबसे बड़ी शर्त यह है कि उसमे गन्दगी न फेकी जाय. गंगा को किसी भी हाल में गन्दा न किया जाय.
४. गंगा में गन्दगी फैलाने पर कठोरतम विधिक व्यवस्था की जानी चाहिए.
५. गंगा जिस भी शहर से होकर गुजरती है उसका मास्टर प्लान ऐसा हो जिससे शहर का कचरा गंगा में न गिरे बल्कि उसका निष्पादन वैज्ञानिक तरीके से हो.
६. एक बार गंगा पर  बने बांधो का पानी छोड़ दिया जाय और गंगा को स्वाभाविक तरीके से कुछ समय के लिए बहने दिया जाय तो पानी के तीव्र बहाव से सारा कचरा बह जाएगा.

वास्तव में गंगा के सफाई करण में पैसे की कोई भूमिका नही है और न ही कोई नया तंत्र बनाने की जरूरत. हमारे पास जो पहले से चली आ रही व्यवस्था है वह पर्याप्त है.

मिस्टर जयराम रमेश सुन रहे हो ?

गुरुवार, 19 मई 2011

भूजल का अंधाधुंध दोहन: वह दिन दूर नही जब सारा देश बंजर रेगिस्तान में बदल जाय

जिस तरह से मनमाने ढंग और लाठी के जोर से   जमीन से पानी खींचा जा रहा है उससे यह लगता है
कि वह दिन दूर नही जब सारा देश बंजर  रेगिस्तान में बदल जाय. देश में हर साल 230 क्यूबिक किमी. भूजल का इस्तेमाल होता है। भारत दुनिया का सबसे ज्यादा भूजल इस्तेमाल करने वाला देश है। भूजल के अंधाधुंध दोहन को रोकने के लिए कोई कारगर कानूनी व्यवस्था न होने से यह मर्ज बढ़ता जा रहा है। देश के सिंचित क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाला 60 फीसदी पानी भूजल स्रोत  पर निर्भर है। पेयजल की 80 फीसदी निर्भरता भूजल पर है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की ओर से देश भर में 2004 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक 29 फीसदी ग्राउंडवॉटर ब्लॉक की हालत काफी गंभीर है या उनका जरूरत से ज्यादा दोहन हो रहा है। लेकिन गंभीर संकट यह है कि पिछले एक दशक में जिन वॉटर ब्लॉक का जरूरत से ज्यादा दोहन हो रहा है, उनकी तादाद तीन गुना बढ़ गई है। अब इस दोहन का सीधा ताल्लुक पदों के सूखने से है.जैसे जैसे भूजल नीचे जायेगा वैसे ही पेड़ों की जड़े पानी प्राप्त करने में कठिनाई महसूस करेगी. और पानी के अभाव में पेड़ सूखने लगेगे. वह इलाके जहा भूजल खतरनाक ढंग से निम्न स्तर पर पहुच  गया है वहा हरियाली का नामोनिशान ख़तम है. नदियों का जहरीला होना, पानी का कम होना, पारंपरिक तालाबो का ख़तम होना, भूजल के लिए शुभ नहीं. अगर समय रहते न चेते तो भूजल के खात्मे के साथ मानवता भी ख़तम हो जायेगी. इसमें कोई दो राय नही. 

मंगलवार, 17 मई 2011

मानवाधिकार: एक दुधारी तलवार

      मानव अधिकार की चर्चा होते ही शक्तिबलों और अमानवीय व्यवस्था से पीड़ित निस्सहाय कत्र्तव्यों के चेहरे और उनकी रक्षा के लिए आगे बढ़ते सक्षम हाथों का एक सिलसिला हमारे सामने आता है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था की आत्मा के रूप में मानव अधिकार की अवधारणा को ग्रहण किया जा रहा है। मानवाधिकार 21वीं शताब्दी में एक ताकतवार अवधारणा के रूप में सामने आए हैं। परन्तु हर ताकत की तरह इनके भी नकारात्मक पक्ष से इन्कार नहीं किया जा सकता। अधिकार किसी भी शक्तिशाली शस्त्र के दुरूपयोग की सम्भावना सर्वाधिक तब ही होती है, जब दुरूपयोग की सम्भावनाओं की ओर सबसे कम ध्यान होता है। इसलिए मानवाधिकारों के सर्वाधिक प्रभावी सदुपयोग के लिए आवश्यक है कि मानवाधिकार सम्बन्धी आन्दोलनों के उत्साहपूर्ण प्रवाह में बहते हुए भी इसकी दिशा और सम्भावित संकटों का भली प्रकार विवेचन किया जाए। मानवाघिकार की अवघारणा से जुड़े नकारात्मक संदर्भों के बीज स्वंय इस अवधारणा में ही मिश्रित हैं। मानवाधिकार मूलतः मनुष्य के वे अधिकार हैं जो उसे मानव होने के नाते प्राप्त होनी चाहिए।
      सम्भवतः यह अवधारणा बहुत सरल प्रतीत होती है किन्तु और किया जाए तो एक बड़ी राजनीति शास्त्रीय समस्या से दो चार होना पड़ता है। व्यक्ति के अधिकारों को आधुनिक व्यवस्था में नागरिक के अधिकारों के रूप में प्रत्यक्षीकृत किया गया। नागरिक के अधिकार उसे राज्य का सदस्य होने के नाते राज्य से प्राप्त होते हैं। राज्य वह शक्ति है जो इन अधिकारों को सुनिश्चित करती है। इस शक्ति के अभाव में नागरिक अधिकारों का संरक्षण दुष्कर है। कम से कम प्रजातन्त्र में राज्य की यही उपयोगिता है। वस्तुतः अधिकार की अवधारणा ही शक्ति पर आधारित है। अधिकार की प्राप्ति एवं संरक्षण शक्ति पर निर्भर है-वह वैयक्तिक हो या सामूहिक। वैयक्तिक अधिकारों के सहारे उत्पन्न होने वाले दमन का ही प्रत्युत्तर अथवा समाधान राज्य संरक्षित नागरिक अधिकारों के रूप में प्राप्त होता है। इसीलिए राज्य सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्थापित हुआ। राज्य के सामाजिक संविदा के सिद्धान्त की यही मूल आत्मा है। नागरिक अधिकारों का संरक्षण प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राज्य का मूल कर्तव्य माना गया।
      अब यहां प्रश्न उठता है कि नागरिक अधिकारों और विधिक अधिकरों के बाद मानवाधिकार की क्या आवश्यकता है।
      इस प्रकार हम पाते हैं कि मानवाधिकार की धारणा प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से राज्य की सत्ता पद प्रश्नाचिन्ह लगती है। राज्य नागरिक-विहीन अधिकारों का संरक्षण करता है। यहां समस्या यह उत्पन्न होती है कि यदि बात अधिकारों की है तो शक्ति चाहिए और यदि वह शक्ति राज्य की नही है तो कौन सी शक्ति होगी - निश्चय ही राज्येतर शक्ति। किसी राज्य की सीमा के अन्तर्गत राज्येतर शक्ति दो प्रकार की हो सकती - आन्तरिक एवं वाहृय। इस प्रकार दो प्रकार की शक्तियों के हस्तक्षेप का मार्ग खुल जाता है - एक तो राज्य विरोधी आन्तरिक शक्तियां और दूसरी अन्य राज्यों की शक्ति। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ही स्थितियाँ अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली राज्यों हेतु बहुत खतरनाक हैं। यहाँ कहने का यह तात्पर्य नहीं कि मानवाधिकार की चर्चा करने वाले सभी व्यक्ति या संगठन राज्य विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक स्थिति और सम्भावित संकट की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐतिहासिक तथ्यों की विवेचना से भी इस संकट की प्राप्ति होती है।
      यदि थोड़ा सा भी ध्यान दिया जाए तो यह देखा जा सकता है कि मानवाधिकारों की चर्चा गत 20-30 वर्षों में अधिक होने लगी है। ऐसा तो नहीं कहा जा सकता की इसके पहले मानवाधिकारों का हनन न था अथवा मानवीय चेतना अल्प-विकसित थी। फिर ऐसा क्या हुआ तीन दशक पूर्व? ध्यान दिया जाना चाहिए कि सोवियत संघ का विघटन नब्बे के दशक की महत्वपूर्ण घटना थी। रूस के विघटन ने यूरोप के भू-राजनीतिक स्वरूप को अचानक बदल दिया। दूसरी ओर विश्व के द्वि-धु्रवीय से एक-धु्रवीय होने की सम्भावनाएँ प्रबल हो गयी। चीन का शक्तिशाली स्वरूप भी तब उभर कर सामने न आया था। द्वितीय महायुद्ध के बाद और शीतयुद्ध के दौरान एक राज्य का दूसरे राज्य के आन्तरिक मामलो में हस्तक्षेप दुष्कर था, क्योंकि हर जगह एक समान शक्तिशाली अन्र्तराष्ट्रीय प्रतिरोध मौजूद होता था। मानवाधिकारों के 1949 के संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र में भी मानवाधिकारों का संरक्षण या केयरटेकर राज्य में ही गया था। चूंकि संयुक्त राष्ट्र संघ और कानून दोनों ही राज्य की सीमा के अन्तर्गत राज्य की प्रभुसत्ता को स्वीकार करते थे, इसलिए किसी राज्य में आन्तरिक हस्तक्षेप को उत्सुक शक्तियों के लिए एक ध्रुवीय विश्व में ऐसा करने में समर्थ थी। ऐसा करने के नैतिक आहार की तलाश थी।
      उपरोक्त दृष्टिबिन्दु को समझने के लिए यूरोप में नाटो राष्ट्रों की कोसोव में हस्तक्षेप की घटना श्रेष्ठ उदाहरण है। मानवाधिकारों के संरक्षण (?) में शक्ति प्रयोग का यह उदाहरण मानवाधिकारों सम्बन्धी विमर्श एवं प्रयासों की दिशा में एक निर्णायक मोड़ हैं। कोसोब समराज्य यूगोस्लाविया की समस्या थी ओर इसका रूप से कोई सम्बन्ध न था। दूसरी ओर नाटो का गठन, विधिक रूप से रूस से उत्पन्न खतरों से नाटों देशों की रक्षा के लिए हुआ था। यूगोस्लाविया नाटो का सदस्य न था। वहाँ के आन्तरिक युद्ध से नाटो देशों को कोई खतरा भी न था। फिर भी नाटों देशों के वहां सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लिया। इसका नैतिक आधार मानवाधिकारों की रक्षा को बनाया गया। समस्याग्रस्त इलाके से जुड़ा एक मात्र नाटो देश ग्रीस था, जिसने इस आयोजन का समर्थन नहीं किया और सैन्य भागीदारी से विरत रहा। फिर भी सैन्य अभियान हुआ और पूरी ताकत से हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि वहाँ से हटा लिए गए। अमेरिका सहित नाटो देशों के उत्साहवर्धन, युद्धक विमान, युद्धपोत, प्रक्षेपास्त्र, बमों का प्रचुर प्रयोग वहाँ की रक्षा हेतु किया गया। यूगोस्लाविया की हवाई पट्टियां और सैन्य ठिकाने ही नहीं बल्कि कारखाने, पुल, वाणिज्य केन्द्र भी चुन-चुन कर नष्ट किए गए। शरणार्थियों का समूह भी बमबारी से न बचा। समाचार एजेन्सी के कार्यालय पर बम गिराए गए। चीनी दूतावास भी बमबारी से नष्ट किया गया। यूगोस्लाविया का अर्धतंत्र नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इस प्रकार विधिक अधिकार के दायरे से निकलते हुए मानवाधिकारों के रक्षा का प्रथम उपक्रम पूर्ण हुआ। इसके बाद तो यह क्रम रूकने का नाम ही न ले रहा। कभी ईराक तो कभी अफगानिस्तान।
      यहाँ पर हमारा उद्देश्य किसी राष्ट्र विशेष  अथवा अमेरिका को दोषी सिद्ध करना मात्र नहीं है। ध्यातव्य यह है कि अधिकार की रक्षा शक्ति से ही होनी है और यदि विधिक या राज्यीय शक्ति से इतर अपरिभाषित शक्ति के जिम्मे इसे छोड़ दिया जाए तो उस शून्य को अनायास ही कोई भी शक्ति-केन्द्र भरने को प्रस्तुत हो जाएगा और स्वाभाविक कि उस शक्ति केन्द्र के अपने हित भी इस घटना का एक आयाम मात्र है। राज्य विरोधी आन्दोलनों (आतंकवाद सहित) द्वारा मानवाधिकारों का ढाल की तरह प्रयोग आम बात है। इस क्रम में गैर सरकारी संगठनों (एन0जी0ओ0) की उत्साहपूर्ण भागीदारी भी एक आयाम है। मुद्दों के चयन में बड़े शक्ति केन्द्रों के हित प्रभावी होते हैं। कश्मीरी पण्डितों के हितों एवं अधिकारों की उपेक्षा इसका एक उदाहरण है ही, साथ ही इसका भी की ऐसे संगठन मुद्दों के चयन में अन्जाने ही किस प्रकार बड़े शक्ति केन्द्रों पर निर्भर हो जाते हैं। आर्थिक एवं वाणिज्य क्षेत्र में भी इसका प्रयोग अवश्य है और होता है। खुले व्यापार की भरपूर वकालत करते हुए भी किसी दूसरे देश से प्रतिस्पद्र्धी उत्पाद को मानवाधिकार के आधार पर प्रतिबन्धित कर देना एक सरल उपाय है। कुछेक संगठनों का शोर शराबा किसी भी राज्य के आतंकवाद के विरूद्ध अयोग्य की धार को कुंठित करने में समर्थ है। विशेष रूप से तब, जबकि अन्य समर्थ राष्ट्र ऐसा चाह लें।
      संक्षेप में कहा जाए तो एक-ध्रुवीय विश्व मंे सर्वोच्च सत्ता केन्द्र द्वारा राज्य एवं विधि के नियमों के प्रतिबन्ध का उल्लंघन कर वैश्विक हस्तक्षेप के नैतिकीकरण का उपकरण बनने की सम्भावना मानवाधिकार की अवधारणा में निहित है। दूसरी ओर राज्य विरोधी एवं अराजक संगठनों हेतु इन्हें ढाल के रूप में प्रयोग किया जाना सम्भव है।
      अब प्रश्न उठता है कि क्या मानवाधिकार की धारणा ही त्याज्य है? यदि नहीं, तो इसके दुरूपयोग की स्थितियों एवं सम्भावनाओं के निवारण का क्या उपाय हो सकता है?
      वस्तुतः समस्या मानवीयता की भावना एवं धारणा में नहीं, बल्कि अधिकार की धारणा एवं भावना में है। मानवाधिकारों के दुरूप्योग पर विश्व स्तर पर पर्याप्त चर्चा हुई है, किन्तु सुस्पष्ट निष्कर्ष प्राप्त न किया जा सका। इसका कारण कि आधुनिक पाश्चात्य चिन्तन एवं व्यवस्था अधिकार पर आधारित है और अर्थवाद के साथ शक्ति एवं बल जुड़े ही हैं तो फिर दमन को कब तक रोका जा सकता है। इसका समाधान एशियाई और विशेषतः भारतीय चिन्तन में प्राप्त है। यदि प्राचीन भारतीय आचार संहिताओं का गम्भीर अध्ययन हो तो हम पाते हैं कि वहां व्यवस्था का निरूपण कर्तव्यों पर आधारित है। यह सत्य है कि अधिकार एवं कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि दोनों एक नहीं है। अधिकार की चर्चा अन्ततः संघर्ष की ओर और कर्तव्य की चर्चा सामान्जस्य की ओर ले जाती है। मानवाधिकार की चर्चा, जहां पूर्व में अब तक सर्वमान्य संख्या एवं विधि पर स्थापित व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगती है, वहीं मानवाधिकार का दुरूपयोग सम्पूर्ण मानवीय अधिकार की दिशा के निर्धारण पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है। आवश्यकता सुधार की नहीं बदलाव की है - दार्शनिक दृष्टि एवं विश्व व्यवस्था की संकल्पना में बदलाव की।        


बुधवार, 4 मई 2011

यमुना में फैले प्रदूषण और भ्रष्ट समाज


आज देश का हर नागरिक गंगा नदी के प्रदूषण से वाकिफ है पर ऐसे बहुत ही कम लोग है है जो यमुना में फैले प्रदूषण के प्रति सजग है .आज देश में हर तरफ लोगो का ध्यान गंगा के प्रदूषण की तरफ है .यमुना भी देश की प्राचीन नदी है .पुराणिक कथाओ में यमुना को ब्रजवासियो की माता माना गया है .गौड़िय विद्वान श्री रुप गोस्वामी ने यमुना को साक्षात् चिदानंदमयी वतलाया है. गर्गसंहिता में यमुना के पचांग - पटल, पद्धति, कवय, स्तोत्र और सहस्त्र नाम का उल्लेख है। यमुना नदी हिमालया से निकल कर इलाहाबाद में जा कर गंगा में मिल जाती है.आश्चर्य की बात देखो की यमुना नदी देश की राजधानी से होकर बहती है और वहां इसकी स्थिति एक गंदे नाले से भी ख़राब है.चलो एक और आश्चर्य की बात बताते है .विश्व के अजूबे ताजमहल जो भारत के आगरा शहर में स्थित है,के पीछे यमुना नदी बहती है ,यहाँ तो यमुना और गंदे नाले में फर्क कर पाना बहुत ही मुश्किल है.यमुना नदी की स्थिति बहुत ही खराब है.यमुना नदी में दिन प्रति दिन प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है जबकि यमुना नदी के किनारे कई ऐतिहासिक नगर कस्बे और गावं बसे हुए है.अब इतिहास की बात सामने आई है तो एक बात और बता दू भारत में निवास करने वाला लगभग हर नागरिक अकबर और बीरबल के नाम से वाकिफ है.बीरबल इसी यमुना के किनारे बसे एक कस्बे कालपी (जिला जालौन ,उत्तर प्रदेश )में जन्मे थे.आमतौर पर लोगो के दिमाग में बढ़ते  प्रदूषण के प्रति यह धारणा बनी हुयी है की जो करेगी सरकार करेगी हमें क्या लेना देना ?यह धारणा बहुत ही गलत है एक माली १२१ करोड़ फूलो की देखभाल नहीं कर सकता और तब तो बिलकुल ही नहीं जब माली अपने आप में बहुत ही भ्रष्ट हो .कहने का मतलब यह है की हम १२१ करोड़ लोग किसी ना किसी रूप में प्रति दिन प्रदूषण फैला रहे है और इस प्रदूषण को मुक्त करने के लिए सरकार ने एक तंत्र बनाया है जो भ्रष्ट तरीके से चलाई जा रहा है तो वो तंत्र कैसे १२१ करोड़ लोगो के द्वारा फैली गन्दगी को साफ़ कर पायेगा.हकीकत तो यह है की एसा तंत्र अपने घर की भी गन्दगी को साफ नहीं कर पता है. निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता की की यदि हम प्रदूषण के प्रति सजग नहीं होगे तो प्रदूषण ऐसे ही बढ़ता रहेगा और हम ऐसे ही चिल्लाते रहेगे.आज हमें प्रदूषण के तुरंत कदम उठाना है   यदि हम अपना घर साफ रखेगे तो पूरा मोहल्ला साफ होगा और मोहल्ला साफ होगा तो गावं ,कस्बा व शहर साफ होगा और यदि एसा होगा तो देश साफ होगा और यदि यह चेतना सभी क्षेत्रो में लागू की जाये तो हम एक भ्रष्ट और प्रदूषण मुक्त समाज को स्थापित कर सकेगे.

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

सभी ब्लागर से एक अपील:अपने जीवनकाल में कम से कम चार छायादार वृक्ष लगाएं.


क्या  आप प्रकृति से जरा  भी प्यार करते है? यदि न तो यह पोस्ट आपके लिए नही यदि हां तो एक काम कीजिये  काम अत्यंत सहज और सरल है. अपने जीवनकाल में कम से कम  चार छायादार वृक्ष लगाएं. इस बार बारिश यूं ही न जाने दीजिये अपने आस पास  पेड़ लगाना शुरू कीजिये लोगो को प्रोत्साहित कीजिये. आप पर धरती का क़र्ज़ है इस क़र्ज़ को समझने का प्रयास कीजिये.
प्रकृति को सुधारने की आवश्यकता नही बल्कि खुद को है हम प्रकृति से जीवन प्राप्त करते है यह इंसान का दायित्व है कि वह पेड़ लगा कर जीवन को और समृद्ध बनाये.










हमें नही चाहिए 
बड़े बड़े कारखाने 
जिसमे से निकलता है 
जहरीला धुँआ
और फ़ैल जाता है 
हवाओं में फिर दिल में 
झौंस देता है 
कोमल कोंपलों को 
हमें नही  चाहिए
चाँद की जमीन और पानी  
धरती पर मीठे झरनों को 
मुक्त कर दो 
कोई भी तकनीक जिससे 
मानवता का दलन
और प्रकृति का गलन 
होता है तज दो
बिना किसी भाव के 
बिना किसी लालच के 
आने वाली पीढ़ियों की खातिर 








गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

"चोंगा एंड चोंगा कंपनी में पर्यावरण जागरूकता पर गहन चर्चा" HAPPY EARTH DAY

कानपुर में एक प्रसिद्ध संस्थान है चोंगा एंड चोंगा कंपनी . यहाँ आज  अर्थ डे मनाया जा रहा था. एक बड़े से हाल में खूब गहमा गहमी मची थी कंपनी के कर्मचारी तैयारियों में आकाश पाताल  एक किये हुए थे. महिला कर्मचारी लिपी पुती अतिथि गण की राह निहार रही थी. हाल के अन्दर बड़े से  प्लास्टिक के बैनर पर सेव अर्थ लिखा हुआ था. बड़े बड़े लोग लोगियाँ परफ्यूम लगाए इधर उधर गर्वीले भाव में चहलकदमी कर रहे थे.कार्यक्रम का आयोजक  चोंगा एंड चोंगा कंपनी के मालिक चोंगाबसंत से बोला,"सर अब आईये हाल को एसी से चिल कर दिया गया है ". थोड़ी देर में हलचल हुयी और चोंगाबसंत जी  मुख्य अतिथि डॉ बंदरवाल मुख्य वक्ता डॉ पोंगालाल और छ सात लगुओ भगुओ के साथ पधारे. कार्यक्रम की शुरुआत गुलदस्ते और माल्यार्पण से हुआ. इसके पश्चात उबाऊ भाषणों का सिलसिला शुरू हुआ. कार्यक्रम के दौरान प्लास्टिक की बोतलों और गिलासों में मिनरल वाटर की व्यवस्था की गयी बाकी कोल्ड ड्रिंक और चाय वाय भी डिस्पोसल सिस्टम में चाक  चौबंद मिल रहा था.
 भाषणोंपरांत वृक्षारोपण प्रस्तावित था.तमाम मुरझाये पौधे  एक कतार से रखे थे. कार्यक्रम व्यवस्थापक जल्दी से दौड़े और पौधे लेकर खड़े हो गए. मुख्य अतिथि पौधे को छूकर गड्ढे की तरफ इशारा मात्र करते और कंपनी के  लगुए भगुए झट से गद्धो में मिटटी डालने लगते तत्पश्चात कंपनी मालिक उनपर पानी छिडकाव करता और बीच बीच में बोलता जाता,सर! इस बार गधाचंद की जगह आप इस दास को मौका दीजिये न टेंडर मेरे नाम से खुलवाईयेगा. चाहे तो दो परसेंट हिस्सा और बढ़ा लें वैसे भी सब आपका ही है. ही ही ही . आप भी क्या बात करते है  चोंगाबसंत साहब, एक बार जबान देतो समझे पक्की. लेकिन आपका "वो" वाला प्रोग्राम क्या बढ़िया था चकाचक व्यवस्था थी यहाँ तो मुर्दाये चेहरे दिख रहे है देखिये न ये मैडम तो ठीक से लिपस्टिक भी नही लगाए है. हे हे हे. चोंगाबसंत एकदम उत्साह में आकर बोला, अरे आप हुकुम करो अगली बार धाँसू प्रोग्राम करवाता हूँ कहो तो मुंबई से बार डांसरो को भो बुलवा लूँगा. बस आप टेंडर न जाने दीजियेगा. मुख्य अतिथि की आँखों चमक आ गयी. इसी तरह अर्थ डे संपन्न हुआ. थोड़ी देर बाद समारोह स्थल पर प्लास्टिक की पन्नियाँ गिलास रैपर बोतले कुचले हुए फूल कूड़े के रूप में पड़े हुए थे.
अगले दिन अखबार में था "पर्यावरण संरक्षण हेतु पालीथिन का प्रयोग न करे" --डॉ बंदरवाल . "तापीय वृद्धि में योगदान देते ए.सी."-- श्री चोंगाबसंत. "चोंगा एंड चोंगा में पर्यावरण  जागरूकता पर गहन चर्चा".

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

दोगलापन

दर्शन और व्यवहार का दोगलापन ही वह सहज चीज़ है जो इस जमाने को हर गुजरे जमाने से अलग करता है. हो सकता है किसी जमाने में आदमी ज्यादा बर्बर हिंसक या आक्रामक रहा हो लेकिन यह तय है की उस पशुत्व में भी कम से कम धोखाधड़ी न थी. हो सकता है की चंगेज़ो या नादिरशाहो ने नरमुंडो के ढेर लगाए हो पर यह तय है उन्होंने मानवतावाद सह अस्तित्व प्रजातंत्र या समाजवाद के नारे नहीं ही लगाए थे. साम्प्रदायिकता प्रबल रही होगी लेकिन निश्चित ही धर्मनिरपेक्षता की ओट में नहीं रही होगी. गौर से देखा जाय कि बीसवी शताब्दी और खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध  के बाद की दुनिया छद्मवाद की दुनिया है. मानवता और प्रजातंत्र का रक्षक बेहिचक परमाणु बम  का प्रयोग करता है  जनसमर्थन से क्रान्तिया   करने वाले जनसंहार में तिल भर संकोच नहीं कर रहे है. प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाये नंगी ताकत के सहारे चल रही हैं. धर्मध्वजा लहराते हुए विजय अभियान पर निकले गिरोह अपने वास्तविक उद्देश्यों में धर्मनिरपेक्ष नहीं तो गैर धार्मिक तो है ही और उनसे कही कमतर नहीं वो धर्मनिरपेक्ष जो बिना साम्प्रदायिक टुकडो में बांटे सच्चाई को देख ही नहीं सकते. पर्यावरण को नष्ट करने वाली नयी से नयी तकनीक का प्रयोग करने वाले ही यह हैसियत  रखते है वो  पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़े से बड़ा एन.जी.ओ. चलाये.
सो भैया  राज तो है दोगलो का हर ढोल में बहुत बड़ा पोल, घुस सको  तो घुस जाओ  और न घुस पाए  तो ढोल की तरह पिटते रहिहे . दोनों ही सूरत में कल्याण नहीं है.
वर्तमान समय में आवश्यकता है सहज ढंग से चलने  वाली व्यवस्था का जिसमे शिखंडी तत्व  की मौजूदगी न हो.

बोल्यो...
गान्ही महाराज की जय
भ्रष्टाचारियों की हो क्षय

मंगलवार, 29 मार्च 2011

गंगा का वजूद २०३० तक ख़त्म. औद्योगिक विकास पर ताली बजाइए

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट है कि गंगा  दुनिया की  'खतरे में शीर्ष दस नदियों' से एक है.गंगोत्री ग्लेशियर, 30.2 किमी लंबा, एक सबसे बड़ा हिमालयी ग्लेशियरों से एक है.  यह 23 मीटर की एक खतरनाक दर / वर्ष की दर से पीछे हटता जा रहा है . यह भविष्यवाणी की गई है कि वर्ष 2030 तक ग्लेशियर गायब हो जायेगा. और इसके साथ ही गंगा का अस्तित्व भी.
अब सवाल उठता है की गंगा पर बने स्थानीय परियोजनाओं का क्या औचित्य है. स्थानीय विकास के नाम पर जो मनमानी हरकत की जा रही है उसका एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ. 
बाँध बनाने के बाद उत्पन्न परिस्थितियां 
१. जल स्रोतों की कमी  
२. घरों में दरारें. . (यह  क्षेत्र  भारत में भूकंप के सबसे अधिक संभावना वाले क्षेत्र है.) इस तरह के घरों में  रहने वाले लोगों के लिए जीवन  असुरक्षित हो गया है.
३.आजीविका और आय का अंत.
४.चराई भूमि और जंगलों की कमी है जिस पर पहाडी लोग   निर्भर करते हैं.
५.   प्राकृतिक सौंदर्य का  सामान्य विनाश पर्यटन के माध्यम से आजीविका का अंत, भूस्खलन
६. स्थानीय संस्कृति का अंत जो गंगा के आसपास केंद्रित है.
टिहरी में भिलंगना नदी को लगभग ख़त्म कर दिया गया है. इसका कारण भागीरथी और भिलंगना के संगम पर बना विशालकाय बाँध है.इस तरह गंगा को अब विषैला बना दिया गया है.गंगा कभी  शुद्ध गुणों के लिए प्रसिद्ध थी .  परंपरागत रूप से यह एक ज्ञात तथ्य यह है कि गंगा जल में कभी कीड़े नही पड़ते  वैज्ञानिक अध्ययनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है.उसमे अब कीड़े ही कीड़े दीखते है.
दूसरी नदियों के भी बुरे हाल है यमुना पर कब्ज़ा करके शहर का फैलाव किया जा रहा है गोमती के अन्दर कूड़ा भर कर वह मकान तक निर्मित कर लिए गए. शिप्रा चम्बल के भी यही हाल है पहाड़ों पर के घने वन काट  डाले गए है और वहा रिसोर्ट बना दिए गए.

गंगा का  भावात्मक पक्ष :
कृष्ण वाणी है, "जल स्रोतों में  मैं गंगा हूँ."
स्वामी विवेकानंद ने कहा - 'हिन्दू धर्म का गठन गीता और  गंगा' ..
मौत के समय  से एक अरब लोगों को अपने होंठों पर उसके पानी की बूंद लालसा.
विदेशी भूमि से भी लोग उसके प्रवाह में अपनी राख तितर बितर और खुद को धन्य मानते हैं.
ऐसी गंगा मरने के कगार पर पहुच गयी है और औद्योगिक विकास की कोई नयी गंगा बह रही है

शनिवार, 26 मार्च 2011

मानव सभ्यता का बैक गीयर बनाम नगरीकरण



मुद्दे पर चर्चा से पूर्व ग्रामीण और नगरीय संरचना में आधारभूत भेद समझ ले नागरिक अर्थव्यवस्था का अधर द्वितीयक अथवा तृतीयक सेवाएँ होती है जबकि गाँव कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था पर आधारित होता है.
जब नगरो का फैलाव शुरू होता है तो सीधे तौर पर इसका निशाना कृषि योग्य जमीन होती है.विकास का जो पैमाना बनाया गया है वह अदौगीकरण पर आधारित है अर्थात अधिकाधिक उद्योगों कई स्थापना और कृषि पर न्यूनतम निर्भरता .स्वतंत्रता के पश्चात् हिदुस्तान कई सकल आय में खेती का हिस्सा लगभग ६५ परसेंट थी जो घटते घटते आज २२ परसेंट पर आ गयी है.यह कोई सकारात्मक संकेत नही है अमेरिका में जरा सा बैक फेल क्या हुए मंदी  आ गयी जबकि इसका असर भारत में कम दिखा. इसका कारण आज भी २२ परसेंट वाला  हिस्सा ही है. नगरो के साथ उपनगरीय क्षेत्रों का अंधाधुंध फैलाव माल कल्चर सेज ग्रामीण क्षेत्रो में बड़े बड़े उद्योगों कई दखलंदाजी खेती योग्य भूमि को बंजर बनाने का ही कार्य कर रही है  जबकि एक ओर  सरकार बंजर जमीनों को उपजाऊ बनाने में अरबों रूपये खर्च कर रही है.नगरो का अनायास विस्तार का अजगरी स्वरुप मात्र ग्रामीण भूमि  को ही नही निगल रहा है बल्कि यह उस भूमि से सम्बंधित तकनीक  मान्यताओं और प्रकार्यों  के साथ न जाने क्या क्या निगल रहा है  
नगरो  को कभी महान दार्शनिक रूसो ने सभ्यता के परनाले की संज्ञा दी थी. अर्थात ये वे केंद्र हुआ करते थे जहा मानव का उद्विकास तीव्रता से होता था. वर्तमान समय में नगर भ्रस्टाचार  धर्मान्धता नैतिक पतन तथा विनाश के केंद्र बन गए है. अपने चरमराते इन्फ्रास्त्रक्चर से जूझते शहर अपने अस्तित्व की  लड़ाई लड़ रहे है.  एक आम शहरी २४ घंटे में तकरीबन १८ से १९ घंटे हांफ हांफ कर काम करता है और इसका उसे अनुकूल परिणाम भी नही मिलता . पारिवारिक सदस्यों से अंतर्क्रिया न होने के फलस्वरूप पारिवारिक विघटन जैसी समस्याए अपने चरम बिंदु पर पहुच चुकी है. इस बात से इनकार नही किया जा सकता की शहरो का जनसँख्या घनत्व बढाने में आस पास के गांवो से आये हुए लोगो की कम भूमिका नही किन्तु यही प्रक्रिया छोटे शहरो से बड़े शहरो की तरफ माईग्रेट करने वाले शहरियों पर लागू होती है. अतः गांवो पर  शहरों की  जनसँख्या में इजाफा करने वाले लगाए गए आरोप  निराधार हैं. तो क्या यह माना जाय की अब नगर अपने अस्तित्व के बचाव के लिए गांवो को विकल्प के रूप में देख रहे है. यदि ऐसा है (जैसा की विमर्श इंगित करता है)तो मानव सभ्यता बैक गीयर में लग गयी है . 



सोमवार, 14 मार्च 2011

जापान में सुनामी के निहितार्थ

जापान  में सुनामी की वजह से जो तबाही हुई उसके अपने कुछ निहितार्थ है . हालाँकि सुनामी के बारे में बहुत कुछ लिखा सुना गया पर मै एक समाज वैज्ञानिक के दृष्टिकोण से अपना मत प्रस्तुत कर रहा हूँ

१. तथाकथित भविष्य वाचको एवं उनके समर्थको के मुंह पर तमाचा -
नया साल शुरू होते ही तमाम ज्योतिषियों पीरो और पोंगा पंडितो की फौज दुनिया का भविष्य बताने लग जाती है. लोग भी बड़े तल्लीनता के साथ भविष्य जानने में रत हो जाते है. कोई ऐसा भविष्य वाचक ने सुनामी के बारे में जानकारी नही दी क्या उसे तब गृह नक्षत्रो की चाल का पता नही लग पाया. इससे  सिद्ध होता है कि ये लोग वास्तव में जनता को मूर्ख बना कर अपना उल्लू सीधा करते है.

२. संस्कृति प्रकृति के आधीन है -  संसार में जो कुछ मानव निर्मित है  वह सब मनाव कृत -संस्कृति  है . संस्कृति दो प्रकार की होती है प्रथम मूर्त जिसमे सुई से लेकर हवाई जहाज तक  सम्मिलित है और यह सभ्यता के स्तर का भी मानदंड बन जाती है ....द्वितीय अमूर्त जिसमे वैचारिक  बातें आती है मानव चाहे सृष्टि को रचने या बदलने का दंभ पाले लेकिन सत्यता यह है कि प्राकृतिक  शक्ति के सम्मुख उसे नत होना ही पड़ता है .एक बात स्पष्ट कर दू कि प्रकृति की अधीनता में ही मानव कल्याण छिपा है.

३.विकास का प्राथमिक  पैमाना औद्योगीकरण नही है- 
जो देश जितना  औद्योगिक होगा वह समग्रतः  विकसित होगा यह एक मिथक है. वस्तुतः विकास का पैमाना मानव की चेतना सहनशीलता और सामंजस्य करने की क्षमता पर आधारित है इसके पश्चात कोई भी प्रक्रिया सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ती है.

४. प्रकृति की भाषा को समझो-
 सुनामी के माध्यम से प्रकृति ने अपनी बात मानव के समक्ष रखी है जिसे विनम्रता पूर्वक प्रकृति को  समझना और अनुपालन करना अनिवार्य होना चाहिए

मंगलवार, 8 मार्च 2011

वर्ष २००१ से अचानक पर्यावरण में कार्बन डाई आक्साइड की उपस्थिति खतरनाक ढंग से बढ़ना शुरू हुई है


धरती में  कार्बन  डाई आक्साईड सोखने की एक अद्भुत क्षमता  है जिससे वातावरण में संतुलन बना रहता है और तापक्रम का नियंत्रण प्राकृतिक तरीके से होता रहता है. धरती की इस क्षमता को बढाने का कार्य पेड़ करते है पेड़ो के अभाव में यह क्षमता घटती जाती
है वन एवं समुद्र मानव द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाई आक्साइड का लगभग ५० परसेंट सोख लेते है. वर्ष २००१ से अचानक पर्यावरण में कार्बन डाई आक्साइड की उपस्थिति खतरनाक ढंग से बढ़ना शुरू हुई है एक शोध के अनुसार २००० से २००७ के मध्य तक यह क्षमता २७ परसेंट तक आ गयी है. वर्ष २००६ से इसका असर खतरनाक ढंग से अन्तातिका पर पड़ रहा है ताप क्रम बढ़ने से ग्लेसियर पिघल रहे है वैज्ञानिको का अनुमान है की २१०० तक ३३% अन्न्तार्तिका की बरफ पिघल जायेगी. इससे समुद्री सतह में १.४ मीटर तक ऊपर उठ जायेगी. 
इसके साथ साथ कार्बन उत्सर्जन का सबसे बुरा असर मौसम चक्र पर दिख रहा है 
एक नजर उत्सर्जन करने वाले देशो की स्थिति पर 

अमेरिका  ---६०४९( मिलियन टन)
चीन        ---- ५०१०( मिलियन टन)
रूस         ---- १५२५( मिलियन टन)
भारत      ----१३४३( मिलियन टन)
जापान    ----१२५८( मिलियन टन)
जर्मनी    ----  ८०९ ( मिलियन टन)
कनाडा    ----  ६३९ ( मिलियन टन)
ब्रिटेन      ---- ५८७( मिलियन टन)
द कोरिया ----   ४६६( मिलियन टन)
इटली       ----   450( मिलियन टन)


मजे की बात यह है की कार्बन उत्सर्जन को औद्योगिक विकास का पैमाना मन जाता है. सुधी पाठको इस  इस दिशा  में सार्थक पहल करनी होगी नहीं तो नयी धरती ढूढने  के लिए तैयार रहे जोकि संभव नही है
   

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

उपभोग की अत्यधिक विषमताओ से हम धरती को निर्जीविता की और धकेल रहे है.



यदि आप अपनी आवश्यकता से अधिक प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करते है तो आप जाने
अनजाने में ऐसा पाप करते है जिसका प्रायश्चित्त संभव नही है. आपका मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे या चर्च जाना चोरी सीना जोरी वाली बात होगी. आप यह तर्क देगे कि मै अपनी मर्जी और पैसे के मुताबिक़ कुछ भी उपभोग करने के लिए स्वतंत्र हूँ तो यह निहायत नीच एवं बेहूदा तर्क है. तह एक किसिम की डकैती है. डकैतों के पास लोगो को लूटने का सामर्थ्य  है तो क्या उनका कृत्य जायज है? नही न, तो आपका कृत्य जायज़ कैसे हो सकता है.
1960 से 2006 तक के आकडे प्रदर्शित करते  है कि जनगणना वृद्धि के अनुपात में प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग वैश्विक स्तर पर  तीन गुना हुआ है धातुओ  का उत्पादन छह गुना, खनिज तेल आठ गुना तथा प्राकृतिक  गैस चौदह गुना हो गयी है. एक औसत यूरोपीय 43 किलोग्राम प्राकृतिक  संसाधन प्रतिदिन उपभोग करता है जबकि एक औसत अमेरिकी 88 किलोग्राम उपभोग करता है
मानव द्वारा उपभोग की मात्र इतनी अधिक है कि उसे पूरा करने के लिए एक तिहाई प्रथ्वी की और अधिक आवश्यकता है.विश्व के सात प्रतिशत लोग पचास प्रतिशत  का उत्सर्जन करते है जबकि पांच प्रतिशत विश्व की आबादी कुल प्राकृतिक संसाधनों के खपत का बत्तीस प्रतिशत व्यय करती है.
उपभोग में इतनी ज्यादा विषमता है कि धनी देशो के 20 प्रतिशत नागरिक ...
1) कुल उत्पादन का 45 मछली मांस का खा जाते  है
2) कुल ऊर्जा 58 प्रतिशत इस्तेमाल करते है.
3)कुल संचार के साधनों का 74 प्रतिशत प्रयोग करते है 
4) कुल कागजों का 84 प्रतिशत प्रयोग करते है.
5) कुल वाहनों का 87 प्रतिशत इस्तेमाल करते है.
उपभोग की अत्यधिक विषमताओ से  हम धरती  को  निर्जीविता  की और धकेल रहे है. अभी भी समय है चेतने का यदि इस कगार पर आकर हम नही चेते तो प्रकृति  हमें दुबारा मौका नही देगी.